भोलाराम का जीव

ऐसा कभी नहीं हुआ था…। धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफारिश  के आधार पर स्वर्ग या नर्क में निवास-स्थान ‘अलाट’ करते या रहे थे- पर ऐसा कभी नहीं हुआ था।

सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछ, बार-बार थूक से पन्ने पलट, रजिस्टर देख रहे थे। गलती पकड में ही नहीं आरही थी। आखिर उन्होंने खीझकर रजिस्टर इतनी ज़ोर से बन्द किया कि मक्खी चपेट में आ गई। उसे निकालते हुए वे बोले, ”महाराज, रिकार्ड सब ठीक है। भोलाराम के जीव ने पाँच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना हुआ, पर यहाँ अभी तक नहीं पहुंचा।”

धर्मराज ने पूछा, ”और वह दूत कहां है?”

”महाराज, वह भी लापता है।”

इसी समय द्वार खुले और एक यमदूत बडा बदहवास-सा वहाँ आया। उसका मौलिक कुरूप चेहरा परिश्रम, परेशानी और भय के कारण और भी विकृत हो गया था। उसे देखते ही चित्रगुप्त चिल्ला उठे, ”अरे तू कहाँ रहा इतने दिन? भोलाराम का जीव कहाँ है?”

यमदूत हाथ जोडक़र बोला, ”दयानिधान, मैं कैसे बतलाऊँ कि क्या हो गया। आज तक मैंने धोखा नहीं खाया था, पर इस बार भोलाराम का जीव मुझे चकमा दे गया। पाँच दिन पहले जब जीव ने भोलाराम की देह को त्यागी, तब मैंने उसे पकडा और इस लोक की यात्रा आरम्भ की। नगर के बाहर ज्यों ही मैं उसे लेकर एक तीव्र वायु-तरंग पर सवार हुआ, त्यों ही वह मेरे चंगुल से छूटकर न जाने कहाँ गायब हो गया। इन पाँच दिनों में मैने सारा ब्रह्यांड छान डाला, पर उसका कहीं पता नहीं चला।”

धर्मराज क्रोध से बोले, ”मूर्ख, जीवों को लाते-लाते बूढ़ा हो गया, फिर एक मामूली आदमी ने चकमा दे दिया।”

दूत ने सिर झुकाकर कहा, ”महाराज, मेरी सावधानी में बिलकुल कसर नहीं थी। मेरे इन अभ्यस्त हाथों से अच्छे-अच्छे वकील भी नहीं छूट सके, पर इस बार तो कोई इन्द्रजाल ही हो गया।”

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चित्रगुप्त ने कहा, ”महाराज, आजकल पृथ्वी पर इसका व्यापार बहुत चला है। लोग दोस्तों को फल भेजते है, और वे रास्ते में ही रेलवेवाले उड़ा लेते हैं। हौज़री के पार्सलों के मोज़े रेलवे आफिसर पहनते हैं। मालगाड़ी के डब्बे-के-डब्बे रास्ते में कट जाते हैं। एक बात और हो रही है। राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उड़ा कर कहीं बन्द कर देते हैं। कहीं भोलाराम के जीव को भी किसी विरोधी ने, मरने के बाद भी खराबी करने के लिए नहीं उड़ा दिया?”

धर्मराज ने व्यंग्य से चित्रगुप्त की ओर देखते हुए कहा, ”तुम्हारी भी रिटायर होने की उम्र आ गई। भला, भोलाराम जैसे दीन आदमी को किसी से क्या लेना-देना?”

इसी समय कहीं से घूमते-फिमते नारद मुनि वहाँ आ गए। धर्मराज को गुमसुम बैठे देख बोले, ”क्यों धर्मराज, कैसे चिंतित बेठे हैं? क्या नरक में निवास-स्थान की समस्या अभी हल नहीं हुई?”

धर्मराज ने कहा, ”वहाँ समस्या तो कभी की हल हो गई, मुनिवर। नर्क में पिछले सालों से बड़े गुणी कारीगर आ गए हैं। कई इमारतों के ठेकेदार हैं, जिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनाईं। बड़े-बड़े इंजीनियर भी आ गए हैं जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर भारत की पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया। ओवरसीयर हैं, जिन्होंने उन मज़दूरों की हाज़री भरकर पैसा हडपा, जो कभी काम पर गए ही नहीं। इन्होंने बहुत जल्दी नरक में कई इमारतें तान दी हैं। वह समस्या तो हल हो गई, पर एक विकट उलझन आ गई है। भोलाराम के नाम के आदमी की पाँच दिन पहले मृत्यु हुई। उसके जीव को यमदूत यहाँ ला रहा था, कि जीव इसे रास्ते में चकमा देकर भाग गया। इसने सारा ब्रह्यांड छान डाला, पर वह कहीं नहीं मिला। अगर ऐसा होने लगा, तो पाप-पुण्य का भेद ही मिट जाएगा।”

नारद ने पूछा, ”उस पर इनकम-टैक्स तो बकाया नहीं था? हो सकता है, उन लोगों ने उसे रोक लिया हो।”

चित्रगुप्त ने कहा, ”इनकम होती तो टैक्स होता। भुखमरा था।”

नारद बोले, ”मामला बड़ा दिलचस्प है। अच्छा, मुझे उसका नाम, पता बतलाओ। मैं पृथ्वी पर जाता हूँ।”

चित्रगुप्त ने रजिस्टर देखकर बतलाया – ”भोलाराम नाम था उसका। जबलपुर शहर के घमापुर मुहल्ले में नाले के किनारे एक डेढ क़मरे के टूटे-फूटे मकान पर वह परिवार समेत रहता था। उसकी एक स्त्री थी, दो लडक़े और एक लड़की। उम्र लगभग 60 वर्ष। सरकारी नौकर था। पाँच साल पहले रिटायर हो गया था, मकान का उस ने एक साल से किराया नहीं दिया था इसलिए मकान-मालिक उसे निकालना चाहता था। इतने मे भोलाराम ने संसार ही छोड दिया। आज पाँचवाँ दिन है। बहुत संभव है कि, अगर मकान-मालिक वास्तविक मकान-मालिक है, तो उसने भोलाराम के मरते ही, उसके परिवार को निकाल दिया होगा। इसलिए आपको परिवार की तलाश में घूमना होगा।”

माँ बेटी के सम्मिलित क्रंदन से ही नारद भोलाराम का मकान पहचान गए।

द्वार पर जाकर उन्होंने आवाज़ लगाई, ”नारायण नारायण !” लड़की ने देखकर कहा, ”आगे जाओ महाराज।”

नारद ने कहा, ”मुझे भिक्षा नहीं चाहिए, मुझे भोलाराम के बारे में कुछ पूछताछ करनी है। अपनी माँ को ज़रा बाहर भेजो बेटी।”

भोलाराम की पत्नी बाहर आई। नारद ने कहा, ”माता, भोलाराम को क्या बिमारी थी?”

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”क्या बताऊँ? गरीबी की बिमारी थी। पाँच साल हो गए पैन्शन पर बैठे थे, पर पेन्शन अभी तक नहीं मिली। हर 10-15 दिन में दरख्वास्त देते थे, पर वहाँ से जवाब नहीं आता था और आता तो यही कि तुम्हारी पेन्शन के मामले पर विचार हो रहा है। इन पाँच सालों में सब गहने बेचकर हम लोग खा गए। फिर बर्तन बिके। अब कुछ नहीं बचा। फाके होने लगे थे। चिन्ता मे घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड दिया।”

नारद ने कहा, ”क्या करोगी माँ? उनकी इतनी ही उम्र थी।”

”ऐसा मत कहो, महाराज। उम्र तो बहुत थी। 50-60 रूपया महीना पेन्शन मिलती तो कुछ और काम कहीं करके गुज़ारा हो जाता। पर क्या करें? पाँच साल नौकरी से बैठे हो गए और अभी तक एक कौड़ी नहीं मिली।”

दुख की कथा सुनने की फुरसत नारद को थी नहीं। वे अपने मुद्दे पर आए, ”माँ, यह बताओ कि यहाँ किसी से उनका विषेश प्रेम था, जिसमें उनका जी लगा हो?”

पत्नी बोली, ”लगाव तो महाराज, बाल-बच्चों से होता है।”

”नहीं, परिवार के बाहर भी हो सकता है। मेरा मतलब है, कोई स्त्री….?”

स्त्री ने गुर्राकर नारद की ओर देखा। बोली, ”बको मत महाराज ! साधु हो, कोई लुच्चे-लफंगे नहीं हो। जिन्दगी भर उन्होंने किसी दूसरी स्त्री को आँख उठाकर नहीं देखा।”

नारद हँस कर बोले, ”हाँ, तुम्हारा सोचना भी ठीक है। यही भ्रम अच्छी गृहस्थी का आधार है। अच्छा माता, मैं चला।” 

स्त्री ने कहा, ”महाराज, आप तो साधु हैं, सिध्द पुरूष हैं। कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि उनकी रुकी पेन्शन मिल जाय। इन बच्चों का पेट कुछ दिन भर जाए?”

नारद को दया आ गई। वे कहने लगे, ”साधुओं की बात कौन मानता है? मेरा यहाँ कोई मठ तो है नहीं? फिर भी सरकारी दफ्तर में जाकर कोशिश करूँगा।”

वहाँ से चलकर नारद सरकारी दफ्तर में पहुँचे। वहाँ पहले कमरे में बैठे बाबू से भोलाराम के केस के बारे में बातें की। उस बाबू ने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोला, ”भोलाराम ने दरखास्तें तो भेजी थीं, पर उनपर वज़न नहीं रखा था, इसलिए कहीं उड ग़ई होंगी।”

नारद ने कहा, ”भई, ये पेपरवेट तो रखे हैं, इन्हें क्यों नहीं रख दिया?”

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बाबू हँसा, ”आप साधु हैं, आपको दुनियादारी समझ में नहीं आती। दरखास्तें पेपरवेट से नहीं दबती। खैर, आप उस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए।”

नारद उस बाबू के पास गये। उसने तीसरे के पास भेजा, चौथे ने पाँचवें के पास। जब नारद 25-30 बाबुओं और अफसरों के पास घूम आए तब एक चपरासी ने कहा, ” महाराज, आप क्यों इस झंझट में पड ग़ए। आप यहाँ साल-भर भी चक्कर लगाते रहें, तो भी काम नहीं होगा। आप तो सीधा बड़े साहब से मिलिए। उन्हें खुश कर लिया, तो अभी काम हो जाएगा।”

नारद बड़े साहब के कमरे में पहुँचे। बाहर चपरासी ऊंघ रहे थे, इसलिए उन्हें किसी ने छेडा नहीं। उन्हें एकदम विजिटिंग कार्ड के बिना आया देख साहब बड़े नाराज़ हुए।बोले, इसे कोई मन्दिर-वन्दिर समझ लिया है क्या? धड़धड़ाते चले आए ! चिट क्यों नहीं भेजी?”

नारद ने कहा, ”कैसे भेजता, चपरासी सो रहा है।”

”क्या काम है?” साहब ने रौब से पूछा।

नारद ने भोलाराम का पेन्शन-केस बतलाया।

साहब बोले, ”आप हैं बैरागी। दफ्तरों के रीत-रिवाज नहीं जानते। असल मे भोलाराम ने गलती की। भई, यह भी मन्दिर है। यहाँ भी दान-पुण्य करना पडता है, भेंट चढानी पडती है। आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं। भोलाराम की दरख्वास्तें उड़ रही हैं, उन पर वज़न रखिए।”

नारद ने सोचा कि फिर यहाँ वज़न की समस्या खड़ी हो गई। साहब बोले, ”भई, सरकारी पैसे का मामला है। पेन्शन का केस बीसों दफ्तरों में जाता है। देर लग जाती है। हज़ारों बार एक ही बात को हज़ारों बार लिखना पडता है, तब पक्की होती है। हाँ, जल्दी भी हो सकती है, मगर  ”साहब रूके।

नारद ने कहा, ”मगर क्या?”

साहब ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा, ”मगर वज़न चाहिए। आप समझे नहीं। जैसे आप की यह सुन्दर वीणा है, इसका भी वज़न भोलाराम की दरख्वास्त पर रखा जा सकता है। मेरी लड़की गाना सीखती है। यह मैं उसे दे दूंगा। साधुओं की वीणा के अच्छे स्वर निकलते हैं। लड़की जल्दी संगीत सीख गई तो शादी हो जाएगी।”

नारद अपनी वीणा छिनते देख ज़रा घबराए। पर फिर सँभलकर उन्होंने वीणा टेबिल पर रखकर कहा, ”यह लीजिए। अब ज़रा जल्दी उसकी पेन्शन का आर्डर निकाल दीजिए।”

साहब ने प्रसन्नता से उन्हें कुर्सी दी, वीणा को एक कोने में रखा और घंटी बजाई। चपरासी हाजिर हुआ।

साहब ने हुक्म दिया, ”बड़े बाबू से भोलाराम के केस की फाइल लाओ।”

थोड़ी देर बाद चपरासी भोलाराम की फाइल लेकर आया। उसमें पेन्शन के कागज़ भी थे। साहब ने फाइल पर नाम देखा और निश्चित करने के लिए पूछा, ”क्या नाम बताया साधुजी आपने?”

नारद समझे कि ऊँचा सुनता है। इसलिए ज़ोर से बोले, ”भोलाराम।”

सहसा फाइल में से आवाज़ आई, ”कौन पुकार रहा है मुझे? पोस्टमैन है क्या? पेन्शन का आर्डर आ गया क्या?”

साहब डरकर कुर्सी से लुढक़ गए। नारद भी चौंके। पर दूसरे क्षण समझ गए। बोले, ”भोलाराम! तुम क्या भोलाराम के जीव हो?”

”हाँ।” आवाज़ आई।

नारद ने कहा, ”मैं नारद हूँ। मैं तुम्हें लेने आया हूँ। स्वर्ग में तुम्हारा इन्तजार हो रहा है।”

आवाज़ आई, ”मुझे नहीं जाना। मैं तो पेन्शन की दरखास्तों में अटका हूँ। वहीं मेरा मन लगा है। मैं दरख्वास्तों को छोडक़र नहीं आ सकता।”

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हरिशंकर परसाई
हरिशंकर परसाई
हरिशंकर परसाई (२२ अगस्त, १९२४ - १० अगस्त, १९९५) हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और व्यंगकार थे। उनका जन्म जमानी, होशंगाबा, मध्य प्रदेश में हुआ था। वे हिंदी के पहले रचनाकार हैं जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के–फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा। उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी ही पैदा नहीं करतीं बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने–सामने खड़ा करती है, जिनसे किसी भी और राजनैतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को उन्होंने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। सामाजिक पाखंड और रूढ़िवादी जीवन–मूल्यों के अलावा जीवन पर्यन्त विस्ल्लीयो पर भी अपनी अलग कोटिवार पहचान है। उड़ाते हुए उन्होंने सदैव विवेक और विज्ञान–सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा–शैली में खास किस्म का अपनापह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है।