कोसी का घटवार

अभी खप्पर में एक-चौथाई से भी अधिक गेहूं शेष था। खप्पर में हाथ डालकर उसने व्यर्थ ही उलटा-पलटा और चक्की के पार्टी के वृत्त में फैले हुए आटे को झाडकर एक ढेर बना दिया। बाहर आते-आते उसने फिर एक बार और खप्पर में झांककर देखा, जैसे यह जानने के लिए कि इतनी देर में कितनी पिसाई हो चुकी हैं, परंतु अंदर की मिकदार में कोई विशेष अंतर नहीं आया था खस्स-खस्स की ध्वनि के साथ अत्यंत धीमी गति से ऊपर का पाट चल रहा था। घट का प्रवेशद्वार बहुत कम ऊंचा था, खूब नीचे तक झुककर वह बाहर निकला। सर के बालों और बाहों पर आटे की एक हलकी सफेद पर्त बैठ गई थी।

खंभे का सहारा लेकर वह बुदबुदाया, “जा, स्साला! सुबह से अब तक दस पंसेरी भी नहीं हुआ। सूरज कहां का कहाँ चला गया है। कैसी अनहोनी बात!”

बात अनहोनी तो है ही। जेठ बीत रहा है। आकाश में कहीं बादलों का नाम निशान ही नहीं। अन्य वर्षों अब तक लोगों की धान रोपाई पूरी हो जाती थी, पर इस साल नदी-नाले सब सूखे पड़े हैं। खेतों की सिंचाई तो दरकिनार बीज की क्यारियां सूखी जा रही हैं। छोटे नाले-गूलों के किनारे के घट महीनों से बंद हैं। कोसी के किनारे हैं गुसाई का यह घट पर इसकी भी चाल ऐसी कि लहू घोड़े की चाल को मात देती हैं।

चक्की के निचले खंड में छिच्छर छिच्छर की आवाज के साथ पानी को काटती हुई मथानी चल रही थी। कितनी धीमी आवाजा अच्छे खाते-पीते ग्वालों के घर में दही की मथानी इससे ज्यादा शोर करती है। इसी मथानी का वह शोर होता था कि आदमी को अपनी बात नहीं सुनाई देती और अब तो भले नदी पार कोई बोले, तो बात यहां सुनाई दे जाय!

छप्प… छप्प… छप्प… पुरानी फौजी पैंट को घुटनों तक मोडक़र गुसांईं पानी की गूल के अंदर चलने लगा। कहीं कोई सुराख – निकास हो, तो बंद कर दे। एक बूंद पानी भी बाहर न जाए। बूंद-बूंद की कीमत है इन दिनों प्रायः आधा फलांग चलकर वह बांध पर पहुंचा। नदी की पूरी चौडाई को घेरकर पानी का बहाव घट की गूल की ओर मोड दिया गया था। किनारे की मिट्टी-घास लेकर उसने बांध में एक-दो स्थान पर निकास बंद किया और फिर गूल के किनारे-किनारे चलकर घट के पास आ गया।

अंदर जाकर उसने फिर पाटों के वृत्त में फैले हुए आटे को बुहारकर ढेरी में मिला दिया। खप्पर में अभी थोड़ा-बहुत गेहूं शेष था। वह उठकर बाहर आया।

दूर रास्ते पर एक आदमी सर पर पिसान रखे उसकी ओर जा रहा था। गुसाईं ने उसकी सुविधा का ख्याल कर वहीं से आवाज दे दी, “है हो! यहाँ लंबर देर में आएगा। दो दिन का पिसान अभी जमा है। ऊपर उमेदसिंह के घट में देख लो।”

उस व्यक्ति ने मुडने से पहले एक बार और प्रयत्न किया। खूब ऊंचे स्वर में पुकारकर वह बोला, “जरूरी है, जी पहले हमारा लंबर नहीं लगा दोगे?”
गुसांईं होंठों-ही-होठों में मुस्कराया, स्साला कैसे चीखता है, जैसे घट की आवाज इतनी हो कि मैं सुन न सकूं!” कुछ कम ऊंची आवाज में उसने हाथ हिलाकर उत्तर दे दिया, “यहाँ जरूरी का भी बाप रखा है, जी! तुम ऊपर चले जाओ।” वह आदमी लौट गया।

- प्रचार के बाद पढ़ना जारी रखें -

मिहल की छाँव में बैठकर गुसाईं ने लकड़ी के जलते कुंदे को खोदकर चिलम सुलगाई और गुड़-गुड़ करता धुआँ उड़ाता रहा।

खस्सर-खस्सर चक्की का पाट चल रहा था।

किट-किट-किट-किट खप्पर से दाने गिरानेवाली चिडिया पाट पर टकरा रही थी।

छिच्छर-छिच्छर की आवाज़ के साथ मथानी पानी को काट रही थी और कहीं कोई आवाज नहीं। कोसी के बहाव में भी कोई ध्वनि नहीं। रेती-पाथरों के बीच में टखने-टखने पत्थर भी अपना सर उठाए आकाश को निहार रहे थे। दोपहरी ढलने पर भी इतनी तेज धूप! कहीं चिरैया भी नहीं बोलती। किसी प्राणी का प्रिय अप्रिय स्वर नहीं।

सूखी नदी के किनारे बैठा गुसाई सोचने लगा, क्यों उस व्यक्ति को लौटा दिया? लौट तो वह जाता ही, घट के अंदर टच्च पडे पिसान के थैलों को देखकर दो-चार क्षण की बातचीत का आसरा ही होता।

कभी-कभी गुसाईं को यह अकेलापन काटने लगता है। सूखी नदी के किनारे का यह अकेलापन नहीं, जिंदगी भर साथ देने के लिए जो अकेलापन उसके द्वार पर धरना देकर बैठ गया है, वही। जिसे अपना कह सके, ऐसे किसी प्राणी का स्वर उसके लिए नहीं। पालतू कुत्ते-बिल्ली का स्वर भी नहीं क्या ठिकाना ऐसे मालिक का, जिसका घर-द्वार नहीं, बीबी-बच्चे नहीं, खाने-पीने का ठिकाना नहीं। घुटनों तक उठी हुई पुरानी फौजी पैंट के मोड को गुसाई ने खोला। गूल में चलते हुए थोडा भाग भीग गया था। पर इस गर्मी में उसे भीगी पैंट की यह शीतलता अच्छी लगी। पेंट की सलवटों को ठीक करते-करते गुसांई ने हुक्के की नली से मुँह हटाया। उसके होठों में बाएँ कोने पर हलकी-सी मुस्कान उभर आई। बीती बातों की याद गुसांई सोचने लगा, इसी पैंट की बदौलत यह अकेलापन उसे मिला है.. नहीं, याद करने को मन नहीं करता। पुरानी, बहुत पुरानी बातें वह भूल गया है, पर हवालदार साहब की पैंट की बात उसे नहीं भूलती।

ऐसी ही फौजी पैंट पहनकर हवालदार धरमसिंह आया था, लॉन्ड्री की धुली, नोकदार, क्रीजवाली पैंट वैसी ही पैंट पहनने की महत्वाकांक्षा लेकर गुसाई फौज में गया था। पर फौज से लौटा, तो पैंट के साथ-साथ जिंदगी का अकेलापन भी उसके साथ आ गया।

पैंट के साथ और भी कितनी स्मृतियाँ मुखर हैं। उस बार की छुट्टियों की बात …

कौन महीना? हाँ, बैसाख ही था। सर पर क्रास खुखरी के क्रेस्ट वाली, काली, किश्तीनुमा टोपी को तिरछा रखकर, फौजी वर्दी वह पहली बार एनुअल-लीव पर घर आया, तो चीड़ वन की आग की तरह खबर इधर-उधर फैल गई थी। बच्चे-बूढे, सभी उससे मिलने आए थे। चाचा का गोठ एकदम भर गया था, ठसाठस्स। बिस्तर की नई, एकदम साफ, जगमग, लाल नीली धारियोंवाली दरी आँगन में बिछानी पड़ी थी लोगों को बिठाने के लिए। खूब याद है, आँगन का गोबर दरी में लग गया था। बच्चे-बूढे, सभी आए थे। सिर्फ चना-गुड या हल्द्वानी के तंबाकू का लोभ ही नहीं था, कल के शर्मीले गुसाई को इस नए रूप में देखने का कौतूहल भी था पर गुसांईं की आँखें उस भीड़ में जिसे खोज रही थीं, वह वहाँ नहीं थी।

नाला पार के अपने गाँव से भैंस के कट्या को खोजने के बहाने दूसरे दिन लछमा आई थी पर गुसांई उस दिन उससे मिल न सका। गांव के छोकरे ही गुसाईं की जान को बवाल हो गए थे। बुड्ढे नरसिंह प्रधान उन दिनों ठीक ही कहते थे, आजकल गुसाईं को देखकर सोबनियाँ का लड़का भी अपनी फटी घेर की टोपी को तिरछी पहनने लग गया है। … दिन-रात बिल्ली के बच्चों की तरह छोकरे उसके पीछे लगे रहते थे, सिगरेट-बीड़ी या गपशप के लोभ में।

एक दिन बड़ी मुश्किल से मौक़ा मिला था उसे लछमा को पात-पतेल के लिए जंगल जाते देखकर वह छोकरों से काँकड़ के शिकार का बहाना बनाकर अकेले जंगल को चल दिया था। गाँव की सीमा से बहुत दूर, काफल के पेड़ के नीचे गुसांई के घुटने पर सर रखकर, लेटी-लेटी लछमा काफल खा रही थी। पके, गदराए, लाल-लाल काफल खेल-खेल में काफलों की छीना-झपटी करते गुसाईं ने लछमा की मुठ्ठी भींच दी थी। टप-टप काफलों का गाढा लाल रस उसकी पैंट पर गिर गया था। लछमा ने कहा था, “इसे यहीं रख जाना, मेरी पूरी बाँह की कुर्ती इसमें से निकल आएगी।” वह खिलखिलाकर अपनी बात पर स्वयं ही हँस दी थी।

पुरानी बात। क्या कहा था गुसांई ने, याद नहीं पड़ता… तेरे लिए मखमल की कुर्ती ला दूँगा, मेरी सुवा!… या कुछ ऐसा ही।

- प्रचार के बाद पढ़ना जारी रखें -

पर लछमा को मखमल की कुर्ती किसने पहनाई होगी- पहाड़ी पार के रमुवाँ ने, जो तुरीनिसाण लेकर उसे ब्याहने आया था?

“जिसके आगे-पीछे भाई-बहिन नहीं, माई-बाप नहीं, परदेश में बंदूक की नोक पर जान रखनेवाले को छोकरी कैसे दे दें हम?” लछमा के बाप ने कहा था।

उसका मन जानने के लिए गुसांई ने टेढ़े-तिरछे बात चलवाई थी।

उसी साल मंगसिर की एक ठंडी, उदास शाम को गुसांई की यूनिट के सिपाही किसनसिंह ने क्वार्टर-मास्टर स्टोर के सामने खड़े-खड़े उससे कहा था, ‘हमारे गाँव के रामसिंह ने जिद की, तभी छुट्टियाँ बढ़ानी पड़ीं। लूस साल उसकी शादी थी। खूब अच्छी औरत मिली है, यार! शक्ल-सूरत भी खूब है, एकदम पटाखा! बड़ी हँसमुख है। तुमने तो देखा ही होगा, तुम्हारे गाँव के नजदीक की ही है। लछमा-लछमा कुछ ऐसा ही नाम है।”

गुसाईं को याद नहीं पड़ता, कौन-सा बहाना बनाकर वह किसनसिंह के पास से चला आया था, …रम-डे थे उस दिन। हमेशा आधा पैग लेनेवाला गुसाई उस दिन दो पैग रम लेकर अपनी चारपाई पर पड़ गया था।… हवलदार मेजर ने दूसरे दिन पेशी करवाई थी- मलेरिया प्रिकॉशन न करने के अपराध में!… सोचते-सोचते गुसाईं बुदबुदाया, “स्साल एडजुटेन्ट!”

गुसाईं सोचने लगा, उस साल छुट्टियों में घर से विदा होने से एक दिन पहले वह मौका निकालकर लछमा से मिला था।

“गंगनाथज्यू की कसम, जैसा तुम कहोगे, मैं वैसा ही करूँगी।” आँखों में आँसू भरकर लछमा ने कहा था। वर्षों से वह सोचता आया है, कभी लछमा से भेंट होगी, तो वह अवश्य कहेगा कि वह गंगनाथ का जागर लगाकर प्रायश्चित जरूर कर ले। देवी-देवताओं की झूठी कसमें खाकर उन्हें नाराज करने से क्या लाभ? जिस पर भी गंगनाथ का कोप हुआ, वह कभी फल-फूल नहीं पाया पर लछमा से कब भेंट होगी, यह वह नहीं जानता। लड़कपन से संगी-साथी नौकरी-चाकरी के लिए मैदानों में चले गए हैं। गाँव की ओर जाने का उसका मन नहीं होता। लछमा के बारे में किसी से पूछना उसे अच्छा नहीं लगता। जितने दिन नौकरी रही, वह पलटकर अपने गाँव नहीं आया। एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन का वालंटियरी ट्रांसफर लेनेवालों की लिस्ट में नायक गुसांईसिंह का नाम ऊपर आता रहा-लगातार पंद्रह साल तक।

पिछले बैसाख में ही वह गाँव लौटा, पंद्रह साल बाद, रिजर्व में आने पर काले बालों को लेकर गया था, खिचडी बाल लेकर लौटा। लछमा का हठ उसे अकेला बना गया।

आज इस अकेलेपन में कोई होता, जिसे गुसाईं अपनी

जिंदगी की किताब पढ़कर सुनाता! शब्द-अक्षर… कितना देखा, कितना सुना और कितना अनुभव किया है उसने…

पर नदी किनारे यह तपती रेत, पनचक्की की खटर-पटर और मिहल की छाया में ठंडी चिलम को निष्प्रयोजन गुडगुडाता गुसाईं। और चारों और अन्य कोई नहीं। एकदम निर्जन, निस्तब्ध, सुनसान…

एकाएक गुसाईं का ध्यान टूटा…

- प्रचार के बाद पढ़ना जारी रखें -

सामने पहाड़ी के बीच की पगडंडी से सर पर बोझा लिए एक नारी आकृति उसी ओर चली आ रही थी। गुसाईं ने सोचा वहीं से आवाज देकर उसे लौटा दे कोसी ने चिकने, काई लगे पत्थरों पर कठिनाई से चलकर उसे वहां तक आकर केवल निराश लौट जाने को क्यों वह बाध्य करे। दूर से चिल्ला चिल्लाकर पिसान स्वीकार करवाने की लोगों की आदत से वह तंग आ चुका था। इस कारण आवाज देने को उसका मन नहीं हुआ। वह आकृति अब तक पगडंडी छोड़कर नदी के मार्ग में आ पहुँची थी।

चक्की की बदलती आवाज को पहचानकर गुसाईं घट के अंदर चला गया। खप्पर का अनाज समाप्त हो चुका था। खप्पर में एक कम अन्नवाले थैले को उलटकर उसने अन्न का निकास रोकने के लिए काठ की चिडियों को उलटा कर दिया। किट-किट का स्वर बंद हो गया। वह जल्दी-जल्दी आटे को थैले में भरने लगा। घट के अंदर मधानी की छिच्छर छिच्छर की आवाज भी अपेक्षाकृत कम सुनाई दे रही थी। केवल चक्की ऊपरवाले पाट की घिसटती हुई घरघराहट का हल्का धीमा संगीत चल रहा था। तभी गुसांई ने सुना अपनी पीठ के पीछे, घट के द्वार पर, इस संगीत से भी मधुर एक नारी का कंठस्वर, कब बारी आएगी, जी? रात की रोटी के लिए भी घर में आटा नहीं है।”

सिर पर पिसान रखे एक स्त्री उससे यह पूछ रही थी। गुसांई को उसका स्वर परिचित-सा लगा। चौंककर उसने पीछे मुड़कर देखा। कपडे में पिसान ढीला बंधा होने के कारण बोझ का एक सिरा उसके मुख के आगे आ गया था। गुसाईं उसे ठीक से नहीं देख पाया, लेकिन तब भी उसका मन जैसे आशंकित हो उठा। अपनी शंका का समाधान करने के लिए वह बाहर आने को मुडा, लेकिन तभी फिर अंदर जाकर पिसान के थैलों को इधर उधर रखने लगा। काठ की चिडियां किट-किट बोल रही थीं और उसी गति के साथ गुसांईं को अपने हृदय की धडकन का आभास हो रहा था।

घट के छोटे कमरे में चारों ओर पिसे हुए अन्य का चूर्ण फैल रहा था, जो अब तक गुसाईं के पूरे शरीर पर छा गया था। इस कृत्रिम सफेदी के कारण वह वृध्द-सा दिखाई दे रहा था। स्त्री ने उसे नहीं पहचाना।

उसने दुबारा वे ही शब्द दुहराए वह अब भी तेज धूप में बोझा सर पर रखे हुए गुसाईं का उत्तर पाने को आतुर थी। शायद नकारात्मक उत्तर मिलने पर वह उलटे पांव लौटकर किसी अन्य चक्की का सहारा लेती।

दूसरी बार के प्रश्न को गुसाई न टाल पाया, उत्तर देना ही पड़ा, “यहां पहले ही टीला लगा है, देर तो होगी ही।” उसने दबे-दबे स्वर में कह दिया।

स्त्री ने किसी प्रकार की अनुनय-विनय नहीं की शाम के आटे का प्रबंध करने के लिए वह दूसरी चक्की का सहारा लेने को लौट पड़ी।

गुसाईं झुककर घट से बाहर निकला। मुडते समय स्त्री की एक झलक देखकर उसका संदेह विश्वास में बदल गया था। हताश-सा वह कुछ क्षणों तक उसे जाते हुए देखता रहा और फिर अपने हाथों तथा सिर पर गिरे हुए आटे को झाडकर एक दो कदम आगे बढा। उसके अंदर की किसी अज्ञात शक्ति ने जैसे उसे वापस जाती हुई उस स्त्री को बुलाने को बाध्य कर दिया। आवाज देकर उसे बुला लेने को उसने मुंह खोला, परंतु आवाज न दे सका। एक झिझक, एक असमर्थता थी, जो उसका मुंह बंद कर रही थी। वह स्त्री नदी तक पहुंच चुकी थी। गुसांई के अंतर में तीव्र उथल-पुथल मच गई। इस बार आवेग इतना तीव्र था कि वह स्वयं को नहीं रोक पाया, लडख़डाती आवाज में उसने पुकारा, “लछमा!”

घबराहट के कारण वह पूरे जोर से आवाज नहीं दे पाया था। स्त्री ने यह आवाज नहीं सुनी। इस बार गुसांई ने स्वस्थ होकर पुनः पुकारा, “लछमा!”

लछमा ने पीछे मुड़कर देखा। मायके में उसे सभी इसी नाम से पुकारते थे, यह संबोधन उसके लिए स्वाभाविक था। परंतु उसे शंका शायद यह थी कि चक्कीवाला एक बार पिसान स्वीकार न करने पर भी दुबारा उसे बुला रहा है या उसे केवल भ्रम हुआ है। उसने वहीं से पूछा, “मुझे पुकार रहे हैं, जी?”

गुसाईं ने संयत स्वर में कहा, “हाँ, ले आ, हो जाएगा।”

लछमा क्षण-भर रूकी और फिर घट की ओर लौट आई।

अचानक साक्षात्कार होने का मौका न देने की इच्छा से गुसाईं व्यस्तता का प्रदर्शन करता हुआ मिहल की छाह में चला गया।

लछमा पिसान का थैला घट के अंदर रख आई। बाहर निकलकर उसने आँचल के कोर से मुँह पोंछा। तेज धूप में चलने के कारण उसका मुँह लाल हो गया था। किसी पेड़ की छाया में विश्राम करने की इच्छा से उसने इधर-उधर देखा । मिहल के पेड़ की छाया छोड़कर अन्य कोई बैठने लायक स्थान नहीं था। वह उसी ओर चलने लगी।

गुसाईं की उदारता के कारण ऋणी-सी होकर ही जैसे उसने निकट आते-आते कहा, “तुम्हारे बाल-बच्चे जीते रहें, घटवारजी! बड़ा उपकार का काम कर दिया तुमने ऊपर के घट में भी जाने कितनी देर में नंबर मिलता।”

अजाज संतति के प्रति दिए गए आशीर्वचनों को गुसाईं ने मन-ही-मन विनोद के रूप में ग्रहण किया। इस कारण उसकी मानसिक उथल-पुथल कुछ कम हो गई। लछमा उसकी ओर देखें, इससे पूर्व ही उसने कहा, “जीते रहें तेरे बाल-बच्चे लछमा! मायके कब आई?”

गुसाईं ने अंतर में घुमड़ती आँधी को रोककर यह प्रश्न इतने संयत स्वर में किया, जैसे वह भी अन्य दस आदमियों की तरह लछमा के लिए एक साधारण व्यक्ति हो ।

दाड़िम की छाया में पात-पतेल झाडकर बैठते लछमा ने शंकित दृष्टि से गुसाईं की ओर देखा। कोसी की सूखी धार अचानक जल प्लावित होकर बहने लगती, तो भी लछमा को इतना आश्चर्य न होता, जितना अपने स्थान से केवल चार कदम की दूरी पर गुसाईं को इस रूप में देखने पर हुआ। विस्मय से आँखें फाड़कर वह उसे देखे जा रही थी, जैसे अब भी उसे विश्वास न हो रहा हो कि जो व्यक्ति उसके सम्मुख बैठा है, वह उसका पूर्व-परिचित गुसाईं ही है।

“तुम?” जाने लछमा क्या कहना चाहती थी, शेष शब्द उसके कंठ में ही रह गए।

“हाँ, पिछले साल पल्टन से लौट आया था, वक्त काटने के लिए यह घट लगवा लिया।” गुसाईं ने ही पूछा, “बाल-बच्चे ठीक हैं?”

आँखें जमीन पर टिकाए, गरदन हिलाकर संकेत से ही उसने बच्चों की कुशलता की सूचना दे दी जमीन पर गिरे एक दाडिम के फूल को हाथों में लेकर लछमा उसकी पंखुड़ियों को एक-एक कर निरूद्देश्य तोडने लगी और गुसाईं पतली सींक लेकर आग को कुरेदता रहा।

बातों का क्रम बनाए रखने के लिए गुसाई ने पूछा, “तू अभी और कितने दिन मायके ठहरनेवाली है?”

अब लछमा के लिए अपने को रोकना असंभव हो गया। टप्-टप्-टप्, वह सर नीचा किए आँसूं गिराने लगी। सिसकियों के साथ-साथ उसके उठते-गिरते कंथों को गुसाईं देखता रहा। उसे यह नहीं सूझ रहा था कि वह किन शब्दों में अपनी सहानुभूति प्रकट करे।

इतनी देर बाद सहसा गुसाईं का ध्यान लछमा के शरीर की ओर गया। उसके गले में चरेऊ (सुहाग-चिह्न) नहीं था। हतप्रभ सा गुसाईं उसे देखता रहा। अपनी व्यावहारिक अज्ञानता पर उसे बेहद झुँझलाहट हो रही थी।

आज अचानक लछमा से भेंट हो जाने पर वह उन सब बातों को भूल गया, जिन्हें वह कहना चाहता था। इन क्षणों में वह केवल मात्र श्रोता बनकर रह जाना चाहता था। गुसाईं की सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि पाकर लछमा आँसू पोंछती हुई अपना दुखडा रोने लगी, “जिसका भगवान नहीं होता, उसका कोई नहीं होता। जेठ-जेठानी से किसी तरह पिंड छुडाकर यहाँ माँ की बीमारी में आई थी, वह भी मुझे छोडक़र चली गई। एक अभागा मुझे रोने को रह गया है, उसी के लिए जीना पड़ रहा है। नहीं तो पेट पर पत्थर बाँधकर कहीं डूब मरती, जंजाल कटता।”

“यहाँ काका-काकी के साथ रह रही हो?” गुसाई ने पूछा।

“मुश्किल पड़ने पर कोई किसी का नहीं होता, जी! बाबा की जायदाद पर उनकी आँखें लगी हैं, सोचते हैं, कहीं मैं हक न जमा लूँ। मैंने साफ-साफ कह दिया, मुझे किसी का कुछ लेना देना नहीं। जंगलात का लीसा ढो-ढोकर अपनी गुजर कर लूँगी, किसी की आँख का काँटा बनकर नहीं रहूँगी।”

गुसाईं ने किसी प्रकार की मौखिक संवेदना नहीं प्रकट की। केवल सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से उसे देखता भर रहा। दाड़िम के वृक्ष से पीठ टिकार लछमा घुटने मोड़कर बैठी थी। गुसाईं सोचने लगा, पंद्रह-सोलह साल किसी की जिंदगी में अंतर लाने के लिए कम नहीं होते, समय का यह अंतराल लछमा के चेहरे पर भी एक छाप छोड़ गया था, पर उसे लगा, उस छाप के नीचे वह आज भी पंद्रह वर्ष पहले की लछमा को देख रहा है।

“कितनी तेज धूप है, इस साल!” लछमा का स्वर उसके कानों में पड़ा। प्रसंग बदलने के लिए ही जैसे लछमा ने यह बात जान-बूझकर कही हो।

और अचानक उसका ध्यान उस ओर चला गया, जहाँ लछमा बैठी थी। दाड़िम की फैली-फैली अथढँकी डालों से छनकर धूप उसके शरीर पर पड़ रही थी। सूरज की एक पतली किरन न जाने कब से लछमा के माथे पर गिरी हुई एक लट को सुनहरी रंगीनी में डूबा रही थी। गुसाईं एकटक उसे देखता रहा।

“दोपहर तो बीत चुकी होगी, लछमा ने प्रश्न किया तो गुसाईं का ध्यान टूटा, “हाँ, अब तो दो बजनेवाले होंगे, उसने कहा, “उधर धूप लग रही हो तो इधर आ जा छाँव में कहता हुआ गुसांई एक जम्हाई लेकर अपने स्थान से उठ गया। “नहीं, यहीं ठीक है, कहकर लछमा ने गुसाईं की ओर देखा, लेकिन वह अपनी बात कहने के साथ ही दूसरी ओर देखने लगा था।

घट में कुछ देर पहले डाला हुआ पिसान समाप्ति पर था। नंबर पर रखे हुए पिसान की जगह उसने जाकर जल्दी-जल्दी लछमा का अनाज खप्पर में खाली कर दिया।

धीरे-धीरे चलकर गुसाई गुल के किनारे तक गया। अपनी अंजुली से भर-भरकर उसने पानी पिया और फिर पास ही एक बंजर घट के अंदर जाकर पीतल और अलमुनियम के कुछ बर्तन लेकर आग के निकट लौट आया।

आस-पास पड़ी हुई सूखी लकड़ियों को बटोरकर उसने आग सुलगाई और एक कालिख पुती बटलोई में पानी रखकर जाते-जाते लछमा की ओर मुँह कर कह गया, “चाय का टैम भी हो रहा है। पानी उबल जाय, तो पत्ती डाल देना, पुडिया में पड़ी है।”

लछमा ने उत्तर नहीं दिया। वह उसे नदी की ओर जानेवाली पगडंडी पर जाता हुआ देखती रही।

सड़क किनारे की दुकान से दूध लेकर लौटते-लौटते गुसाईं को काफी समय लग गया था। वापस आने पर उसने देखा, एक छः सात वर्ष का बच्चा लछमा की देह से सटकर बैठा हुआ है।

बच्चे का परिचय देने की इच्छा से जैसे लछमा ने कहा, “इस छोकरे को घडी-भर के लिए भी चैन नहीं मिलता। जाने कैसे पूछता-खोजता मेरी जान खाने को यहाँ भी पहुँच गया है।”

गुसाईँ ने लक्ष्य किया कि बच्चा बार-बार उसकी दृष्टि बचाकर माँ से किसी चीज के लिए जिद कर रहा है। एक बार झुंझलाकर लछमा ने उसे झिडक दिया, “चुप रह! अभी लौटकर घर जाएँगे, इतनी-सी देर में क्यों मरा जा रहा है?”

चाय के पानी में दूध डालकर गुसाईं फिर उसी बंजर घट में गया। एक थाली में आटा लेकर वह गूल के किनारे बैठा-बैठा उसे गूँथने लगा। मिहल के पेड की ओर आते समय उसने साथ में दो-एक बर्तन और ले लिए।

लछमा ने बटलोई में दूध-चीनी डालकर चाय तैयार कर दी थी। एक गिलास, एक एनेमल का मग और एक अलमुनियमके मैसटिन में गुसाई ने चाय डालकर आपस में बाँट ली और पत्थरों से बने बेढंगे चूल्हे के पास बैठकर रोटियाँ बनाने का उपक्रम करने लगा।

हाथ का चाय का गिलास जमीन पर टिकाकर लछमा उठी। आटे की थाली अपनी ओर खिसकाकर उसने स्वयं रोटी पका देने की इच्छा ऐसे स्वर में प्रकट की कि गुसाईं ना न कह सका। वह खड़ा खड़ा उसे रोटी पकाते हुए देखता रहा। गोल गोल डिबिया सरीखी रोटियाँ चूल्हे में खिलने लगीं। वर्षों बाद गुसाईं ने ऐसी रोटियाँ देखी थीं, जो अनिश्चित आकार की फौजी लंगर की चपातियों या स्वयं उसके हाथ से बनी बेडौल रोटियों से एकदम भिन्न थीं। आटे की लोई बनाते समय लछमा के छोटे-छोटे हाथ बड़ी तेजी से घूम रहे थे। कलाई में पहने हुए चाँदी के कड़े जब कभी आपस में टकरा जाते, तो खन्- खन् का एक अत्यंत मधुर स्वर निकलता चक्की के पाट पर टकरानेवाली काठ की चिडियों का स्वर कितना नीरस हो सकता है, यह गुसाईं ने आज पहली बार अनुभव किया।

किसी काम से वह बंजर घट की ओर गया और बड़ी देर तक खाली बर्तन-डिब्बों को उठाता रखता रहा। वह लौटकर आया तो लछमा रोटी बनाकर बर्तनों को समेट चुकी थी और अब आटे में सने हाथों को धो रही थी।

गुसाईं ने बच्चे की ओर देखा वह दोनों हाथों में चाय का मग थामे टकटकी लगाकर गुसाईं को देखे जा रहा था। लछमा ने आग्रह के स्वर में कहा, “चाय के साथ खानी हों, तो खा लो। फिर ठंडी हो जाएँगी।”

“मैं तो अपने टैम से ही खाऊँगा। यह तो बच्चे के लिए “स्पष्ट कहने में उसे झिझक महसूस हो रही थी, जैसे बच्चे के संबंध में चिंतित होने की उसकी चेष्टा अनधिकार हो ।

‘नन, जी। वह तो अभी घर से खाकर ही आ रहा है। मैं रोटियाँ बनाकर रख आई थी, अत्यंत संकोच के साथ लछमा ने आपत्ति प्रकट कर दी।

“हाँ, यों ही कहती है। कहाँ रखी थीं रोटियाँ घर में?” बच्चे ने रूआँसी आवाज में वास्तविक व्यक्ति की बतें सुन रहा था और रोटियों को देखकर उसका संयम ढीला पड़ गया था।

“चुप!” आँखें तरेरकर लछमा ने उसे डांट दिया। बच्चे के इस कथन से उसकी स्थिति हास्यास्पद हो गई थी, इस कारण लज्जा से उसका मुंह आरक्त हो उठा। “बच्चा है, भूख लग आई होगी, डाँटने से क्या फायदा?” गुसाईं ने बच्चे का पक्ष लेकर दो रोटियाँ उसकी ओर बढ़ा दीं। परंतु माँ की अनुमति के बिना उन्हें स्वीकारने का साहस बच्चे को नहीं हो रहा था। वह ललचाई दृष्टि से कभी रोटियों की ओर, कभी माँ की ओर देख लेता था।

गुसाईं के बार-बार आग्रह करने पर भी बच्चा रोटियाँ लेने में संकोच करता रहा, तो लछमा ने उसे झिडक़ दिया, “मर अब ले क्यों नहीं लेता? जहाँ जाएगा, वहीं अपने लच्छन दिखाएगा!”

इससे पहले कि बच्चा रोना शुरू कर दें, गुसाईं ने रोटियों के ऊपर एक टुकडा गुड का रखकर बच्चे के हाथों में दिया भरी भरी आँखों से इस अनोखे मित्र को देखकर बच्चा चुपचाप रोटी खाने लगा, और गुसाई कौतुकपूर्ण दृष्टि से उसके हिलते हुए होठों को देखता रहा।

इस छोटे से प्रसंग के कारण वातावरण में एक तनाव-सा आ गया था, जिसे गुसाईं और लछमा दोनों ही अनुभव कर रहे थे। स्वयं भी एक रोटी को चाय में डुबाकर खाते-खाते गुसाईं ने जैसे इस तनाव को कम करने की कोशिश में ही मुस्कराकर कहा, “लोग ठीक ही कहते हैं, औरत के हाथ की बनी रोटियों में स्वाद ही दूसरा होता है।”

लछमा ने करूण दृष्टि से उसकी ओर देखा गुसाई हो होकर खोखली हँसी हँस रहा था।

“कुछ साग-सब्जी होती, तो बेचारा एक-आधी रोटी और खा लेता।” गुसाईं ने बच्चे की ओर देखकर अपनी विवशता प्रकट

की। “ऐसी ही खाने-पीनेवाले की तकदीर लेकर पैदा हुआ होता तो मेरे भाग क्यों पडता? दो दिन से घर में तेल नमक नहीं है। आज थोडे पैसे मिले हैं, आज ले जाऊँगी कुछ सौदा।”

हाथ से अपनी जेब टटोलते हुए गुसाईं ने संकोचपूर्ण स्वर में कहा, “लछमा!”

लछमा ने जिज्ञासा से उसकी ओर देखा गुसाईं ने जेब से एक नोट निकालकर उसकी ओर बढाते हुए कहा, “ले, काम चलाने के लिए यह रख ले, मेरे पास अभी और है। परसों दफ्तर से मनीआर्डर आया था।”

“नहीं नहीं, जी। काम तो चल ही रहा है। मैं इस मतलब से थोडे कह रही थी। यह तो बात चली थी, तो मैंने कहा”, कहकर लछमा ने सहायता लेने से इन्कार कर दिया

गुसाईं को लछमा का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। रूखी आवाज में वह बोला, “दुःख-तकलीफ के वक्त ही आदमी आदमी के काम नहीं आया, तो बेकार है। स्साला! कितना कमाया, कितना फूँका हमने इस जिंदगी में है कोई हिसाब! पर क्या फायदा! किसी के काम नहीं आया। इसमें अहसान की क्या बात है? पैसा तो मिट्टी है स्साला! किसी के काम नहीं आया तो मिट्टी, एकदम मिट्टी!”

परन्तु गुसाईं के इस तर्क के बावजूद भी लछमा अड़ी रही, बच्चे के सर पर हाथ फेरते हुए उसने दार्शनिक गंभीरता से कहा, “गंगनाथ दाहिने रहें, तो भले-बुरे दिन निभ ही जाते हैं, जी। पेट का क्या है, घट के खप्पर की तरह जितना डालो, कम हो जाय। अपने पराये प्रेम से हँस-बोल दें, तो वह बहुत है दिन काटने के लिए।”

गुसाईं ने गौर से लछमा के मुख की ओर देखा। वर्षों पहले उठे हुए ज्वार और तूफान का वहां कोई चिह्न शेष नहीं था। अब वह सागर जैसे सीमाओं में बँधकर शांत हो चुका था।

रूपया लेने के लिए लछमा से अधिक आग्रह करने का उसका साहस नहीं हुआ। पर गहरे असंतोष के कारण बुझा बुझा-सा वह धीमी चाल से चलकर वहाँ से हट गया। सहसा उसकी चाल तेज हो गई और घट के अंदर जाकर उसने एक बार शंकित दृष्टि से बाहर की ओर देखा। लछमा उस ओर पीठ किए बैठी थी। उसने जल्दी-जल्दी अपने नीजी आटे के टीन से दो-ढाई सेर के करीब आटा निकालकर लछमा के आटे में मिला दिया और संतोष की एक साँस लेकर वह हाथ झाड़ता हुआ बाहर आकर बाँध की ओर देखने लगा। ऊपर बाँध पर किसी को घूमते हुए देखकर उसने हाँक दी। शायद खेत की सिंचाई के लिए कोई पानी तोड़ना चाहता था।

बाँध की ओर जाने से पहले वह एक बार लछमा के निकट गया। पिसान पिस जाने की सूचना उसे देकर वापस लौटते हुए फिर ठिठककर खड़ा हो गया, मन की बात कहने में जैसे उसे झिझक हो रही हो। अटक-अटककर वह बोला, ‘लछमा ।”

लछमा ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा गुसाईं को चुपचाप अपनी ओर देखते हुए पाकर उसे संकोच होने लगा। वह न जाने क्या कहना चाहता है, इस बात की आशंका से उसके मुँह का रंग अचानक फीका होने लगा। पर गुसाईं ने झिझकते हुए केवल इतना ही कहा, “कभी चार पैसे जुड़ जाएं, तो गंगनाथ का जागर लगाकर भूल-चूक की माफी माँग लेना। पूत-परिवारवालों को देवी-देवता के कोप से बचा रहना चाहिए।” लछमा की बात सुनने के लिए वह नहीं रूका।

पानी तोड़नेवाले खेतिहार से झगड़ा निपटाकर कुछ देर बाद लौटते हुए उसने देखा सामनेवाले पहाड़ की पगडंडी पर सर पर आटा लिए लछमा अपने बच्चे के साथ धीरे-धीरे चली जा रही थी। वह उन्हें पहाड़ी के मोड तक पहुँचने तक टकटकी बाँधे देखता रहा।

घट के अंदर काठ की चिडियाँ अब भी किट-किट आवाज कर रही थीं, चक्की का पाट खिस्सर-खिस्सर चल रहा था और मथानी की पानी काटने की आवाज आ रही थी, और कहीं कोई स्वर नहीं, सब सुनसान, निस्तब्ध!

- प्रचार के बाद पढ़ना जारी रखें -
शेखर जोशी
शेखर जोशी
शेखर जोशी का जन्म उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के ओलिया गांव में सन् 1932 के सितंबर माह में हुआ था। शेखर जोशी का प्रारंभिक शिक्षा अजमेर और देहरादून में हुई। इन्टरमीडियेट की पढ़ाई के दौरान ही सुरक्षा विभाग में जोशी जी का ई.एम.ई. अप्रेन्टिसशिप के लिए चयन हो गया, जहां वो सन् 1986 तक सेवा में रहे तत्पश्चात स्वैच्छिक रूप से पदत्याग कर स्वतंत्र लेखन में संलग्न हैं। दाज्यू, कोशी का घटवार, बदबू, मेंटल जैसी कहानियों ने न सिर्फ शेखर जोशी के प्रशंसकों की लंबी जमात खड़ी की बल्कि नई कहानी की पहचान को भी अपने तरीके से प्रभावित किया है। पहाड़ी इलाकों की गरीबी, कठिन जीवन संघर्ष, उत्पीड़न, यातना, प्रतिरोध, उम्मीद और नाउम्मीदी से भरे औद्योगिक मजदूरों के हालात, शहरी-कस्बाई और निम्नवर्ग के सामाजिक-नैतिक संकट, धर्म और जाति में जुड़ी रुढ़ियां - ये सभी उनकी कहानियों के विषय रहे हैं। शेखर जोशी की प्रमुख प्रकाशित रचनाएं हैं: कोशी का घटवार साथ के लोग हलवाहा नौरंगी बीमार है मेरा पहाड़ एक पेड़ की याद प्रतिनिधि कहानियां