नाम क्या है उर्फ अंडे चोर

अचानक ही उसे एक दिन इस शहर में देखा गया। कोई नहीं जानता था कि वो कहाँ से आयी है। उसे खुद भी नहीं पता था कि उसका घर कहाँ है। उसकी याददाश्त कहीं खो गयी थी। इस याददाश्त के साथ उसका सारा अतीत खो गया था। उसका नाम खो गया था। याददाश्त न हो जैसे जीवनभर की कमाई की गठरी हो। कभी-कभी वो सूनी आँखों से कहीं सूने में एकटक देखती रहती। जैसे वो कुछ खोज रही हो। अपने आप को या फिर अपने नाम को ढूंढ़ रही हो। जब वो अपने आप में वापस आती तो दिनभर जामा मस्जिद के आसपास ही घूमती रहती। कोई कुछ खाने को देता तो खा लेती। भीख वो किसी से नहीं मांगती थी। रात को वो कहाँ रहती, इसका ज्यादातर पता नहीं चलता। उसकी उम्र ज़्यादा नहीं थी। इसलिए शाम होते न होते कुछ लोग उसके पीछे लग जाते। वो मुँह ही मुँह में हमेशा कुछ बड़बड़ाती रहती। उसकी बड़बड़ाहट को सुनने और उससे कुछ जानने की बहुत लोगों ने कोशिश की। पर कोई तन्त नहीं निकला।

लोगों ने उसे कई नाम दिये पर किसी भी नाम पर उसमें कोई जुम्बिश नहीं हुई। सारे नाम व्यर्थ चले गये। कोई नाम नहीं होने से बहुत दिक्कत होती नाम की ऐसी आदत थी कि लोग गायों और कुत्ते बिल्लियों तक के नाम रख देते थे। उसे रास्ते से उठाना हो या कोई चीज़ देने के लिए बुलाना हो तो उसे इशारा करना पड़ता। उसकी पीठ अगर आपकी तरफ हो तो पास जाकर उसे कौंचना पड़ता। उसमें पागलपन के भी कुछ लक्षण थे। इसलिए लोग उसके पास जाने से घबराते थे।

दोपहर का वक़्त था कि बाज़ार में अचानक बहुत ज़ोर का शोर हुआ। वो आगे-आगे भाग रही थी, लोग उसके पीछे भाग रहे थे। चिल्लाते हुए–अण्डे चोर… अण्डे चोर। भागने वालों और तमाशा देखने वालों में से किसी को ठीक-ठीक पता नहीं था कि हुआ क्या है। शायद उसे भूख लगी होगी और उसने चाय की दुकान पर रखे उबले हुए अण्डों में से एक या दो अण्डे उठा लिये होंगे। चोरी का कौशल उसके पास नहीं था। वो भाग रही थी। उसकी फटी पुरानी धोती बार-बार उसके पाँवों में उलझ रही थी। भागने के बीच वो कई ठेलों से टकरायी, कई बार गिरी। उसके हाथ-पाँव में कई जगह खून छलछला आया था। कुछ लोगों ने उसे पत्थर भी मारे थे। फिर किसी ने आगे बढ़कर पीछे भागते लोगों को रोक दिया। लोग कुछ देर खड़े रहे फिर अपने-अपने रास्ते चले गये। वो भी एक तरफ जाकर बैठ गयी। वो हाँफ़ रही थी और धीरे-धीरे सिसक रही थी। उसकी हर सिसकी जैसे एक लम्बी और अँधेरी सुरंग थी। उसमें उसकी बरसों की तकलीफें कहीं छिपी हुई थीं। लेकिन इतना अँधेरा था कि कुछ भी देख पाना सम्भव नहीं था। ऐसा समय था कि हमारी हिंसा हमें लज्जित करने के बजाय और अधिक उत्साहित करती थी।

उस दिन के बाद लेकिन ऐसा हुआ कि जब भी कोई अण्डे चोर’ कहकर आवाज़ कसता, वो गालियाँ बकती, आवाज़ कसने वाले के पीछे दौड़ती, हाथ लग जाये तो पत्थर भी फेंकती। धीरे-धीरे उसकी चिढ़ावनी बन गयी। और एक नाम उसे मिल गया—अण्डे चोर।

- प्रचार के बाद पढ़ना जारी रखें -
राजेश जोशी
राजेश जोशी
राजेश जोशी साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी साहित्यकार हैं। उनका जन्म मध्य प्रदेश के नरसिंहगढ़ जिले में हुआ। उन्होंने शिक्षा पूरी करने के बाद पत्रकारिता शुरू की और कुछ सालों तक अध्यापन किया। राजेश जोशी ने कविताओं के अलावा कहानियाँ, नाटक, लेख और टिप्पणियाँ भी लिखीं। उन्होंने कुछ नाट्य रूपांतर तथा कुछ लघु फिल्मों के लिए पटकथा लेखन का कार्य भी किया। उनके द्वारा भतृहरि की कविताओं की अनुरचना भूमिका "कल्पतरू यह भी" एवं मायकोवस्की की कविता का अनुवाद "पतलून पहिना बादल" नाम से किए गए है। कई भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अँग्रेजी, रूसी और जर्मन में भी उनकी कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हुए हैं।