कितने पाकिस्तान : कमलेश्वर

विभाजन और हिंसा के बीच पिस रहा मनुष्य सबकी नज़रों में होता है पर उसपर किसी का ध्यान नहीं जाता है या ऐसा कहें कि कोई ध्यान देना नहीं चाहता। विभाजन शब्द से यहाँ सिर्फ किसी भूमि के टुकड़े का विभाजन ना समझा जाए। जब हम अपने आस पास देखते हैं तो हमें अनेक प्रकार के विभाजन दिखाई देते हैं। ये विभाजन सामाजिक, आर्थिक, भाषिक एवं धार्मिक आदि भी हो सकते हैं। इन सभी विभाजनों के केंद्र में मनुष्य होता है। कमलेश्वर अपने बहुचर्चित उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ में विभाजन से जूझ रहे समाज में मरणासन्न मनुष्यता के एक लंबे इतिहास को दिखाते हैं। यह उपन्यास कमलेश्वर मई 1990 में लिखना शुरू करते हैँ और इसका पहला संस्करण 2000 में आता है। तबसे अबतक इसके बीस संस्करण आ चुके हैं।

‘कितने पाकिस्तान’ उपन्यास में कोई नायक नहीं है। स्वयं कमलेश्वर इस उपन्यास की भूमिका में लिखते हैं-

“…कोई नायक या महानायक सामने नहीं था, इसलिए मुझे समय को ही नायक-महानायक और खलनायक बनाना पड़ा।”

इस उपन्यास का नायक भी समय है और खलनायक भी। हालाँकि इसमें कुछ पात्र अवश्य हैं। मुख्य पात्र के रूप में ‘अदीब’ नामक व्यक्ति है। अदीब शब्द का अर्थ होता है- साहित्यकार। इसके अलावा सलमा और अर्दली भी इस उपन्यास के पात्र हैं। ये पात्र मानवीय अवश्य हैं पर प्रतीकात्मक अधिक लगते हैं। साहित्यकार यानी अदीब वह इंसान होता है जो तमाम त्रासदियों में मानवता के अवशेष खोजता है, वह अपनी अदालत में इतिहास में हुई घटनाओं को सामने रखता है और एक निष्कर्ष पर पहुँचता है अथवा अंतर्द्वंद्व से घिरा रहता है। सलमा इस उपन्यास में उस भावना की तरह है जिसे अदीब पाना चाहता है पर तमाम बंधनों और रूढ़ियों ने उसका रास्ता रोक रखा है। सलमा बहुत कम समय के लिए इस उपन्यास में रहती है। अतः इस पात्र का उतना विस्तार हमें नहीं मिलता है। अर्दली इस उपन्यास में सभी घटनाओं तथा ऐतिहासिक पुरुषों को अदीब की अदालत में हाजिर करता है साथ ही साथ अदीब जब भावनाओं में बहने लगता है तो उस पर नियंत्रण भी करता है। अर्दली को हम बुद्धि की भाँति समझ सकते हैं जो हमारे समक्ष हमारे तमाम ज्ञान को रखता है जिसे हम विश्लेषित करते हैं। इस तरह से अगर देखें तो ये तीनों पात्र वो धागे हैं जिसमें इस उपन्यास में चलने वाली तमाम बहसें पिरोई गई हैं।

  उपन्यास में कथा नहीं वरन कथाएं हैं अर्थात उपन्यास में कोई ऐसी कथा नहीं है जो पूरे उपन्यास में चलती है । इस उपन्यास में मुख्यतः इतिहास की तमाम घटनाओं और पात्रों को अदीब की अदालत में पेश किया गया है और जिरहें चल रही हैं। ये इतिहास सिर्फ भारतीय उपमहाद्वीप के नहीं हैं वरन विश्व के उन हिस्सों के जैसे कोसोवो, पूर्वी तिमोर, सोमालिया, कश्मीर आदि की हैं जहाँ सामाजिक और धार्मिक विभाजन के चलते हत्याएं हो रही हैं। इस प्रकार कमलेश्वर पाकिस्तान शब्द का प्रयोग भी प्रतीकात्मक रूप से करते हैं। पाकिस्तान का अभिप्राय उस समाज और स्थान से है जहाँ भाषा, क्षेत्र, धर्म, जाति और विचारधारा आदि के नाम पर विभाजन और हिंसा हुई है।

 इतिहास में जो धर्म आदि के नाम पर हत्याएं हुई हैं हर ऐसी घटना से हमारा भारतीय समाज बँटता चला गया। हर दंगे के बाद समाज में एक विघटन होता है और उस विघटन के साथ ही पूर्वाग्रह का जन्म होता है। इस उपन्यास में प्रमुखतः हमारे भारतीय इतिहास के दो घटनाओं को सामने रखकर बाते की गई हैं- एक बाबरी मस्जिद का विध्वंस और दूसरा औरंगजेब का धार्मिक उन्माद। इसके अलावा कश्मीरी हिंदुओं के पलायन और देश के विभाजन की भी त्रासदियाँ इस उपन्यास में आई हैं। इन घटनाओं का लेखक पड़ताल करते हैं तथा कई आयामों को हमारे समक्ष रखते हैं। अयोध्या का समाज क्या बाबरी मस्जिद के बन जाने से विभाजित हो गया था या क्या उस मस्जिद का निर्माण बाबर ने कराया था? इन सभी बातों को तथ्यों के माध्यम से कमलेश्वर हमारे समक्ष रखते हैं। विश्वनाथ मंदिर को गिराकर वहाँ पर मस्जिद बनाए जाने वाली घटना को वह अदीब की अदालत में पेश करते हैं। यहाँ पर हमें कुछ नए तथ्यों का पता चलता है। यहाँ प्रश्न उठता है कि ये तथ्य कितने प्रामाणिक हैं और अगर प्रामाणिक हैं तो सामान्य जनमानस के मध्य क्यूँ नहीं हैं?

“हर समय ऐसे ही होते रहा है कि हर सदी में एक दाराशिकोह के साथ एक औरंगजेब भी पैदा होगा। इस दस्तूर को बदलना होगा, नहीं तो मेरे साथ-साथ तुम सबका भविष्य भी डूब जाएगा।…..अगर मैं मर गया तो तुम्हारे सारे सपने समाप्त हो जायेंगे।” दाराशिकोह की हत्या का प्रसंग इतिहास के षडयंत्रों की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करता है और साथ ही यह दिखाता है की मज़हब का इस्तेमाल किस तरह मात्र सत्ता हासिल करने के लिए किया जाता है और यह इस्तेमाल मात्र औरंगजेब ही नहीं वरन लगभग हर शासक ने किया और वह आज भी हमारी राजनीति का एक अभिन्न अंग है। धर्म, संप्रदाय आदि का प्रयोग हमेशा सत्ताधारी लोग करते हैं और जो सामान्य जन होते हैं वह बस इस चक्की में पिसते रहते हैं। लोगों के विश्वास को चराना राजाओं का प्रमुख हथियार रहा है।”

इस उपन्यास के कुछ हिस्सों में अलग-अलग टेक्स्ट के कुछ हिस्से लाकर रख दिये गए हैं। सभी पाठ एक पात्र या घटना के रूप में यहाँ आते हैं और इस उपन्यास में समा जाते हैं, यह इस उपन्यास की खासियत रही है। इस उपन्यास में लगभग 2-3 पेज ‘आधा गाँव’ उपन्यास का एक अंश है जहाँ एक हिन्दू दोस्त अपने मुस्लिम दोस्त को कहता है कि जिस हिसाब से यहाँ दंगे बढ़ रहे हैं उसे पाकिस्तान चले जाना चाहिए। मुस्लिम दोस्त इसका जवाब देता है-

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 “तुम तो कह दिया – चल जा.. लेकिन पाकिस्तान जाए का किराया-भाड़ा भी जुट गया, तो भी ई हमार खेतवा कइसे जाई पाकिस्तान?”

यह जो स्थान है जो खेत है, घर है यह किसी के साथ दूसरी जगह नहीं जा सकता। यह हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग हैं। इंसान एक सामाजिक प्राणी है। उसे अपना समाज बनाने में आधा जीवन लगता है कभी-कभी पूरा भी लग जाता है और फिर कोई आए और हमें वह समाज छोड़कर जाना पड़े। एक बात ये भी कि भारत में जो मुस्लिम समुदाय है वह विश्व के अन्य जगह के मुस्लिम समुदाय से अलग है वह यहाँ की संस्कृति में घुल गया है और वह यहीं की पैदाईश है यहाँ की साझा संस्कृति कुछ वर्षों में नहीं बनी है वरन यह अनेक सदियों के तोड़ फोड़ के बाद बनी है। इस उपन्यास में एक स्थान पर नूरजहाँ शाहजहाँ से कहती है-

“उड़ते सूरज को सलाम करना और डूबते सूरज को नमाज़ के साथ विदा करना… यह तो हमारी हिन्दुस्तानी परंपरा का खास हिस्सा है।”

हमारे देश के भौगोलिक और सामाजिक दोनों विभाजन में अंग्रेजी हुकूमत का बहुत बड़ा हाथ रहा है उपन्यास में कहा गया है-

“इन अंग्रेजों के बच्चों को सोचना चाहिए … सदियों पहले सौदागर की तरह सलाम करते आए थे, वैसे ही सलाम करो और अपने मुल्क लौट जाओ पर…. जो कमा लिया वो तुम्हारी किस्मत ले जाओ पर… जो हमारा वो तो खुशी-खुशी छोड़ जाओ”

जैसा की पहले ही कहा गया कि यह उपन्यास मात्र भारत और पाकिस्तान की पीड़ा तक सीमित नहीं है। वह हिरोशिमा का भी दर्द लेकर आता है और चीन का भी अफ्रीका का भी। एक अंश हिरोशिमा के दर्द का इस प्रकार है-

“”मेरे ऊपर जो परमाणु बम गिराया था वह दुर्घटना नहीं युद्ध समाप्त करने के नाम पर सोचा समझा परीक्षण था। मानव जाति पर किया गया जघन्य आक्रमण…. अरे दरिंदो ! देखो मेरे इस क्षार-क्षार हुए शरीर को। नागासाकी के क्षत-विक्षत भूगोल को, माँ के कोख में विकलांग हो गई संतानों को, प्रचण्ड तापमान में पिघलकर वाष्प की तरह उड़ जाने वाले लाखों मनुष्यों को, जल-जलकर मुँह तक आकर न निकलने वाली मृत्यु की चीत्कारों की …. घुटती साँसों में दम तोड़ती बेबस उसाँसों को, हिचकी लेती हिचक-हिचक करती जिंदगी को, देखो मुझे मैं हीरोशिमा हूँ। मैंने खुद झेला है मानव विनाश के मृत्यु को। परमाणु नाभकीय संकट को जन्म देने वाले जितने अपराधी हैं, मैं उन्हें उनकी कब्रों में चैन से सोने नहीं दूँगा। वे सभी वैज्ञानिक चाहे फ्राँस के हो या जर्मनी, ब्रिटेन या रूस के वे मानवद्रोही और जघन्य अपराधी हैं इन्हें कब्रों मै चैन से सोने की ऐय्याशी बख्शी नहीं जा सकती।”

इस उपन्यास की भाषा और शैली भी काफी अलग है। चूंकि अनेक जगहों के मिथक और घटनाओं का ज़िक्र हुआ है अतः उपन्यास की भाषा में वैसे शब्द भी मिल जाते हैं। उपन्यास में अधिकतर अरबी और फारसी शब्दों की भरमार है। इसकी शैली स्वप्न की तरह लगती है एक घटना के बाद कोई और घटना कहीं और से आ गई फिर पहली घटना आ गई। अतः इसे पढ़ते वक्त पाठक कभी भी ध्यान भटकने नहीं दे सकता और उसे हर घटना को याद रखना पड़ता है क्योंकि वह आगे कहीं ना कहीं उसका इंतजार कर रही होती है और उपन्यास के साथ जुड़ जाती है।

इस तरह यह उपन्यास विश्व भर के मानव की पीड़ा का चित्रण करता है। क्योंकि मानवता की कोई भी सीमा नहीं होती है वह धर्म , जाति, नस्ल, विचारधारा, देश आदि की सीमाओं में नहीं बंधी हुई है। यही विचार हमारी सोच को स्वतंत्रता प्रदान करती है और हमें विश्व को देखने की एक व्यापक दृष्टि भी देती है।

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