तुमड़ी के शब्द : बद्री नारायण

तुमड़ी के शब्द : बद्री नारायण

बद्री नारायण वर्तमान समय के महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। 2019 में राजकमल प्रकाशन से उनकी एक कविता संग्रह प्रकाशित हुई, ‘तुमड़ी के शब्द’। यह उनका चौथा काव्य संग्रह है।

 बद्री नारायण की कविताएं कहीं-कहीं जीवन के बड़े सूक्ष्म भावों को पकड़ती हैं और उनके पहलुओं को बारीकी से हमारे समक्ष रखती हैं और कहीं-कहीं वे एक बड़ी बात को बड़े छोटी कविता में बयाँ करती हैं। इस कविता संग्रह की शुरुवात ही होती है जीवन के ‘सिर्फ चार दिन’ की बात करते हुए। यह चार दिन हर व्यक्ति के जीवन में अलग-अलग ढंग से आते हैं और बीत जाते हैं। इन दिनों में जो आशा के संचार करने वाले शब्द हैं वो हैं ‘तुमड़ी के शब्द’ जैसा की उन्होंने इसी शीर्षक वाली कविता में लिखा है-

“पर सुनो! इस शब्द से निर्बल को बल मिलता है

निर्धन को धन

अंधे को आँख मिलती है

और बहरे को कान

इसमें निराकार को

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निराकार में भी साकार मिलता है”

...  … …

“बीच-बीच में ढाँढ़स बँधाता है मुझे

तुमड़ी पर गा-गाकर नाचता भगैत

डरों मत कवि!

यह शब्द मारते ही जी जाता है”

यह अंश विषम परिस्थितियों में कुटज बन जीने और अनहद नाद को महूसस करते हुए जीने की कविता है।

समाज में जीने वाले इंसानों में वह लोग भी हैं जो छूटे हुए हैं। छूटे हुए लोगों को हम हाशिये पर पड़े लोगों को भी मान सकते हैं और उन्हें भी जो जीवन को जीते हुए किसी भी प्रकार से समाज से छूट जाते हैं। इनके लिए बद्री नारायण लिखते हैं-

“उसके दुख पर मैं लिखना कहता हूँ

एक पुराण

अब तक के पुराणों से अलग

पुराणों के अर्थ को तोड़ता

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छूट गए लोगों के दुखों की एक दास्तान”

यह ‘दुख पुराण’ कविता की आखिरी पंक्तियाँ हैं। इस कविता में उस व्यक्ति की बात करते हैं “जो आदमी संगत, पंगत और विकास से छूट जाता है/ जो टूट जाता है, जो हार जाता है” संगत और पंगत से छूटना समाज के विभाजन को दर्शाता है। विकास से छूटना समाज के आखिरी व्यक्ति को दिखाता है। टूटना और हारना व्यक्ति के आंतरिक संघर्षों और पीड़ाओं को दर्शाता है। इस प्रकार इन कुछ पंक्तियों में कवि पूरी तरह से एक छूटे हुए इंसान को पकड़ लेते हैं। यह पढ़ते हुए विनोद कुमार शुक्ल का स्मरण होता है जो निराश हुए व्यक्ति की तरफ अपना हाथ बढ़ाते हैं।

कवि की कविताएं एक व्यक्ति के मन को छूने के साथ-साथ सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक परिस्थितियों के प्रति भी चिंता व्यक्त करती हैं। वह जनतंत्र पर व्यंग्य कसते हुए उसके सामंती प्रवृति को उजागर करते हुए कहते हैं-

“मैं पत्नी को मारता हूँ

पत्नी बेटे को

बीटा पालतू कुत्ते का कान

उमेठ-उमेठ कर जोर से रुलाता है

ऐसे ही तो

जनगड़ का भाव आता है”

वह इस झूठ को नहीं स्वीकार करते कि हम एक अच्छे जनतंत्र में रहने वाले लोग हैं। उनका कहना है कि इस देश में “अनेकताओं के कत्ल पर/’एकता’ यहाँ लेती है आकार/खंड-खंड को मार-मार/‘अखंडता’ आती है” यह एकता और अखंडता का दम भरते हुए हम फूले नहीं समाते जबकी यथार्थ की भूमि पर कुछ और ही दिखाई देता है। वह वैश्वीकरण का भय देखते हैं। वह वैश्वीकरण जो गरीबों को और गरीब करता है और अमीरों को और अमीर। वह चिंता जताते हैं कि “अमेरिका का गेहूँ बिकता है नसीरी गंज बाजार में/ नासिरी गंज बाजार का गेहूँ आरा के गोदाम में सड़ता है” यह एक जिम्मेदार नागरिक की चिंताएं हैं।

आजाद भारत आज भी अंग्रेजों के प्रभाव में है। हम आजाद अवश्य हुए हैं पर हमारे संस्कारों में अंग्रेजी संस्कार बहुत गहराई तक उतार चुके हैं। हमारी सोच भी उसी ढंग की होती जा रही है। कवि अपनी कविता ‘रानी तेरा नौकर’ में कहते हैं – “तुझे यह जानकार आश्चर्य होगा रानी/ कि तुझसे आजादी के इतने सालों बाद भी तेरे एक सलाहकार द्वारा लिखी / वह तुम्हारी जीवनी पढ़ रहा है/ जीवनी पढ़ रहा है/ और मुग्ध होकर किलक-किलक / अपने बच्चों को भी सुन रहा है/ तुम आज भी उसमें कितनी जीवंत हो रानी” भारतीय लोगों में अंग्रेजी सामंती व्यवस्था जीवंत है। वह ‘किलक-किलक’ कर और मुग्ध होकर अपनी भावी पीढ़ियों को उसके बारे में बताता है। कवि की चिंता में देशवासियों द्वारा पाश्चात्य संस्कृति को आंगीकृत किया जाना तो है ही साथ ही यह भी है कि किस प्रकार से हमारी भाषा से देशज शब्द लुप्त हो रहे हैं। ना सिर्फ देशज शब्द बल्कि गाँव किस प्रकार मर रहे हैं यह भी कवि की चिंता का विषय है। हम इस संग्रह में यह भी पाते हैं कि कवि इस संग्रह की अपनी कुछ कविताओं में देशज शब्दों का प्रयोग करता है। इस प्रकार वह उस बात को निभाते हुए भी दिखाई देता है जो वह कविता में कह रहा है। वह जब ‘बेगमपुरा एक्स्प्रेस’ कविता में ज़िक्र करते हैं कि वहाँ जाने के लिए हमें धन दौलत की नहीं वरन प्रेम की आवश्यकता है तो यह अपने पूरे भाव को प्रकट कर देता है।

अपनी कविताओं में कवि ने सरल हिंदी शब्दावली का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं देशज शब्दों का भी प्रयोग है। ये शब्द भी उन कविताओं में आए हैं जहाँ लोक से जुड़ी कोई बात कही जा रही होती है। इस प्रकार उनका प्रयोग कविता की सुंदरता में वृद्धि करता है। कवि ने बिंबों का सुंदर प्रयोग अपनी कविताओं में किया है। एक बिम्ब इस तरह है- “नीले आकाश में उड़ती/ चिड़ियों के हार से/जो चिड़िया छूट जाती है” हम चिड़ियों के हार को रोज शाम को देखते हैं उससे छूटी हुई चिड़िया यानी हार का टूटना। यह अंश ‘दुख पुराण’ कविता का है। जिसके बारे में ऊपर चर्चा की जा चुकी है। एक अन्य कविता ‘विचार मृत्यु’ में वह कहते हैं-

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“सूर्य उत्तरायण में जाने वाला है

शर शैया पर लेटे

गाँव के विचार

अपने मृत्यु का इंतजार कर रहे हैं

हमारे घर के पीछे रात चार बजे के आस पास एक कुत्ता रो रहा है

कि शायद इन विचारों के मरने के बाद

भी कोई नहीं बचेगा

न आदमी, न जानवर

न चिड़िया, न चुरगुन”

इस प्रकार बद्री नारायण का यह संग्रह अपने भाव और शिल्प दोनों ही कारणों से एक सुंदर कविताओं की माला है। ‘तुमड़ी के शब्द’ कविता जो इसका शीर्षक भी है वह इस संग्रह की कविताओं को पूरी तरह से समाहित कर लेता है। सुंदर और छोटी कविताएं इस संग्रह की खासियत हैं। विचार और भाव दोनों के समन्वय से निकली कविताएं इस संग्रह को महत्वपूर्ण बनाती हैं।

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