पुस्तक समीक्षा : वैशालीनामा

वैशालीनामा

इस किताब के बारे में लिखते हुए सोच रहा हूँ कि ऐसी किताब कभी पहले क्यों मेरे पास तक नहीं पहुँची। हो सकता है कि किसी किताब ने कोशिश की हो पर मैं अपने प्रिय लेखकों या किताबों में उलझा रहा होऊँ और किसी ऐसी किताब की अनदेखी मुझसे हो गई हो।

यह कहानी है लोकतंत्र जैसी महान विचारधारा के जन्म की, आख़िर किस परिस्थिति में इस प्रणाली का उदय हुआ। और शायद इस विषय पर किसी भी भाषा में लिखी गई यह पहली और एकमात्र किताब है। इस उपन्यास को कोई भी आलोचक, गंभीर पाठक आसानी से क्लासिक उपन्यासों की श्रेणी में रखना चाहेगा।

वैशालीनामा भारतवर्ष के उस दौर में ले जाती है, जहाँ से सभ्यता और संस्कृति का उदय हुआ। जहाँ से भारत भूमि और इसके राज्यों की स्थापना शुरु हुई। यह कहानी है नाभाग की। एक ऐसा राजा जो केवल नाम से नहीं बल्कि काम से भी राजा था। जिसने राज काज का बलिदान इसलिए दिया क्योंकि वह जानता था कि उसका धर्म क्या है।

इस किताब में जाति व्यवस्था को जिस गहराई से दिखाया गया है, वह भारत के अंंतर्मन की सटीक व्याख्या करती हुई लगती है। जहाँ सब ओर एक दंभ है, जहाँ महानता साबित करने की होड़ है और जहाँ कहानी है दबे कुचलों को ख़त्म कर देने वालों के षणयंत्र की।

प्रभात प्रणीत की इस किताब को पढ़ते हुए न केवल जाति व्यवस्था को करीब से जाना जा सकता है बल्कि हर दौर में हुए बदलावों और उनकी अगुआई करते लोगों के बारे में भी कुछ सटीक बिंदु प्राप्त होते हैं। आचार्य ब्रह्मदत्त का पात्र इस पूरे वाक्य को सटीक तरीके से प्रस्तुत करता है, और इस वाक्य का संबल भी है जिसमें यह कहना उचित होगा कि कुछ अपवाद हमेशा रहे हैं जो रूढ़ियों से लड़े और देश, धर्म व जातियों को एक करने की ओर सभी को अग्रसर किया।

कहानी के नायक नाभाग का चरित्र लगभग मानवीय जाति के सबसे आदर्श रूप में हमारे आता है। जो बिना किसी व्यवधान के शुरुआत से अंत तक बना रहता है। कहानी की नायिका के रूप में सुप्रभा को जिस तरह प्रभात दर्शाते हैं वह स्त्रियों के एक लंबे संघर्ष और जीत की गाथा के रूप में उभरकर हमारे सामने आती है।

वसुरथ के रूप में एक लालची व उद्दंड पात्र को दिखाकर लेखक ने यह सुनिश्चित किया है कि भले ही सब कुछ अच्छा हो, लेकिन साथ में कुछ ऐसा घटित हो रहा होता है जो आपके पूरे जीवन को बदलकर रख देता है।

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सत्यरथ के ‌रूप में रूढ़ियाँ तोड़ने वाला, अछूतों के संघर्षों को सामने लाने वाला और उनके साथ हमेशा खड़े‌ रहने वाला पात्र इस जीजिविषा को दर्शाने में कामयाब हुआ है कि आप जन्म के आधार पर किसी के तले दबने के लिए नहीं बने। यह मेरा प्रिय किरदार भी रहा।‌

भलान्दन जिसके लिए सबकुछ उसके माता-पिता थे। उसने वही किया जो उसके माता पिता ने चाहा। एक आदर्श बालक और एक आदर्श राजा के रूप में जिसे ख्याति मिली।‌

इन सभी पात्रों को करीब से जानने पर लगा कि यह किताब कितनी ज़रूरी है, न केवल पठनीयता के तौर पर बल्कि समाज, भारतवर्ष और व्यवस्थाओं को जानने के लिए भी।

किताब की भाषा संस्कृतनिष्ठ है परंतु अपठनीय नहीं। कहानी की तारतम्यता ‌बनी रहे इसलिए लेखक ने यह कोशिश भी की है, अलग-अलग जगहों पर रोचक प्रसंग आते रहें। जिससे यह किताब और निखर जाती है।

अंत में इतना ही कहना चाहूँगा कि यह किताब हम सभी को पढ़नी चाहिए। और हमारे पास होनी ही चाहिए। किताब प्रकाशित की है राजकमल प्रकाशन की इकाई राधाकृष्ण प्रकाशन ने। और यह सभी ऑनलाइन प्लैटफॉर्म्स जिनमें अमेज़न और फ्लिपकार्ट आदि शामिल हैं पर उपलब्ध है। तो आज ही ऑर्डर करें।

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अंकुश कुमार
अंकुश कुमार
अंकुश कुमार हिन्दी साहित्य के प्रति आज के युग में सकारात्मक कार्य करने वाले युवाओं में से एक हैं , इन्होने अपने हिंदी प्रेम को केवल लेखन तक सिमित न करते हुए एक नए प्रयाश के रूप में हिन्दीनामा की शुरुआत की।