आत्महत्या के विरुद्ध : रघुवीर सहाय

रघुवीर सहाय का काव्य संग्रह ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ 1967 में प्रकाशित हुआ। भारतभूषण अग्रवाल रघुवीर सहाय के विषय में लिखते हैं, “भीड़ से घिरा एक व्यक्ति- जो भीड़ बनने से इनकार करता है और उससे भाग जाने को गलत समझता है- रघुवीर सहाय का साहित्यिक व्यक्तित्व है।” रघुवीर सहाय जनता के प्रति प्रतिबद्ध कवि थे। उनकी अधिकतर कविताएं राजनीतिक हुआ करती थीं। यह काव्य संग्रह उनकी ऐसी ही कविताओं का संग्रह है। इस संग्रह के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनकी कविताएं भाव और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से पाठकों को प्रभावित करती हैं।

अपनी कविताओं के विषय में दूसरा सप्तक के अपने वक्तव्य में रघुवीर सहाय ने कहा– “कोशिश तो यही रही है कि सामाजिक यथार्थ के प्रति अधिक से अधिक जागरूक रहा जाए और वैज्ञानिक तरीके से समाज को समझा जाए।”

अपनी कविता ‘नई हँसी’ में वह कहते हैं-

“बीस बड़े अख़बारों के प्रतिनिधि पूछें पचीस बार

क्या हुआ समाजवाद

कहे महासंघपति पचीस बार हम करेंगे विचार

आँख मारकर पचीस बार वह हँसे वह, करेंगे विचार

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हँसे बीस अख़बार / एक नई ही तरह की हँसी यह है”

यह नई तरह की हँसी कौन सी है? कौन ये हँसी हँसता है? इन सवालों का जवाब पूरे समाज को पता रहता है फिर भी आँख मूंदकर उन्हें नजरअंदाज करते हैं। एक पूरी व्यवस्था इसमें शामिल है और वह कहते हैं- “जात-पाँत से परे/ रिश्ता अटूट है/ राष्ट्रीय झेंप का” इस प्रकार वह दर्शाते हैं कि इसमें सभी शामिल हैं पूरे राष्ट्र को शर्मिंदा करने के लिए। वह ये काम कैसे करते हैं इसके बारे में वह अपनी ‘अकाल’ कविता में कहते हैं- “प्रतिष्ठित पंडित राजाराम/ मारते वही जिलाते वही/ वही दुर्भिक्ष वही अनुदान/ विधायक वही, वही जनसभा/ सचिव वह,वही पुलिस कप्तान/ दया से देख रहे हैं दृश्य/ गुसलख़ाने की खिड़की खोल/ मुक्ति के दिन भी ऐसी भूल!/ रह गया कुछ कम ईसपगोल।”

हम उनकी कविता में ‘जनता’ और ‘भीड़’ शब्द का प्रयोग देखते हैं । यहाँ भीड़ क्या है? भीड़ अनियंत्रण का प्रतीक है जिसे कोई भी किसी भी तरफ मोड़ देता है। भीड़ वह भी है जो अनेक हत्याओं की जिम्मेदार है। वह हत्या है जनता की। वह ‘मेरा प्रतिनिधि’ कविता में कहते हैं- “मैं / कि जो अन्यत्र / भीड़ में मार गया था।” यह जो नागरिक मारा गया है उस पर प्रतिनिधि क्या करता है। वह हत्या की करुण कथा को कहता है ताकी वह संवेदना बटोर सके, वह वोट बटोर सके। बीस वर्ष हो गए थे आजादी को और लोकतंत्र अपने ही देश में भ्रमित और बेगाना हो चुका है।  इस देश में रहने वाली भीड़ को सच बोलने वालों से भी नफरत हो गई है। वह हत्याओं के प्रति इतने आदी हो गए हैं कि उन्हें फर्क ही नहीं पड़ता है। इस जनता को फटकारते हुए कवि कहते हैं- “एक मेरी मुश्किल है जनता / जिससे मुझे नफ़रत है सच्ची और निस्संग / जिस पर कि मेरा क्रोध बार-बार न्योछावर होता है” इस जनता की अकर्मण्यता को इंगित करते हुए आगे कहते हैं- “बनिया बनिया रहे/ बाम्हन बाम्हन और कायथ कायथ रहे/ पर जब कविता लिखे तो आधुनिक/ हो जाए। खींसें बा दे जब कहो तब गा दे।” इस प्रकार जनता पूरी तरह से अपने जिम्मेदारियों से अनभिज्ञ है जिसकी वजह से लोकतंत्र भ्रमित और बेगाना हो चुका है। अभी तक हम रघुवीर सहाय की कविताओं को सिर्फ राजनीतिक कविता देख रहे थे परंतु ध्यान से देखने पर पता चलता है यह हमारे समाज की तस्वीरें भी हैं।

रघुवीर सहाय सरल भाषा में समाज में फैली कुरीतियों, विखंडनकारी शक्तियों पर प्रहार भी करते हैं। वह अपनी कविता ‘प्रार्थनाघर’ में कहते हैं-

“सादी दीवार में

लकड़ी का द्वार

सिर झुकाए बंद

कृपा करके यहाँ विज्ञापन ना चिपकाएं

यह हमारा प्रार्थनाघर है।”

यह उनकी एक छोटी कविता थी। इसी तरह वह एक और कविता ‘चढ़ती स्त्री’ में लिखते हैं-

“बच्चा गोद में लिए

चलती बस में

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चढ़ती स्त्री

और मुझमें कुछ दूर तक घसीटता जाता हुआ”

इस प्रकार की छोटी और सोचने को मजबूर करती हुई कविताएं रघुवीर सहाय की खासियत रही हैं। वह बिना मतलब के एक पंक्ति भी व्यर्थ नहीं करते हैं। इस कविता में ना केवल कवि दूर तक घसीटता जाता है वरन पाठक भी जाता है।

रघुवीर सहाय अपनी कविताओं में समाज को संबोधित करते हुए, सत्ता को चुनौती देते हुए, इतिहास से बहस करते हुए और पारंपरिक प्रतीकों को तोड़ते हुए लिखते हैं। उनकी भाषा एक नए रूप में हमारे सामने आती है। उनके प्रतीक और बिम्ब हमारे समक्ष जो दृश्य प्रस्तुत करते हैं वह किसी ऐतिहासिक घटना का दृश्य दिखाई देता है। भीड़, जनता, व्यक्ति, मुसद्दिलाल, मैकु आदि शब्द उनकी कविता के ही हैं। उन्होंने तभी कविता लिखनी शुरू की थी जब नेहरू प्रधानमंत्री बने थे अतः अपनी कविताओं में वह बार-बार नेहरू को संबोधित करते हुए भी लिखते हैं और सत्ता के कुव्यवस्था की आलोचना करते हैं। ‘गिरीश की मृत्यु’ कविता में वह लिखते हैं-

“गाँव-गाँव में दिया जन-जन को

विश्वास

नेकराम नेहरू ने

कि अन्याय आराम से होगा आमराय से होगा नहीं तो

कुछ नहीं होगा

गाँव में”

रघुवीर सहाय एक पत्रकार भी थे जिसका प्रभाव हमें उनकी भाषा में भी मिलता है। भाषा से आगे अगर हम यह देखें कि एक कवि मन का व्यक्ति पत्रकार है और रोज हत्याओं की खबर उसके आँखों के सामने से जा रही हैं। तो वह कविता में राजनीति, समाज के अलावा अपने मन की पीड़ा को भी सामने रखता है। वह अपनी कविता ‘कोई एक और मतदाता’ में यह दिखाते हैं कि मतदाता का मरना भी खबरों में तभी आता है जब उससे कोई राजनीतिक फायदा हो। ऐसे अनेक मतदाता मर जाते हैं जिन्हें कोई नहीं जान पाता। यह सभी दृश्य देखते हुए एक कवि पत्रकार कहता है– “इतना दुख मैं देख नहीं सकता” और फिर वह दुख पर विभिन्न कालों जैसे छायावाद, प्रगतिवाद, में लिखे गए दुखों की बात करता है और अपने समय में खुद को मरते हुए मतदाताओं में अकेला पाता है।

इस संग्रह में कुल 39 कविताएं है। अधिकतर कविताएं राजनीतिक और सामाजिक हैं। रघुवीर सहाय अपने भाषा में अनूठे कवि हैं। उनकी कविताओं में हमें उनके पत्रकार की झलक मिलती है पर वह समाज की आवाज को कविता के रूप में कहता दिखाई देता है। इस प्रकार, यह संग्रह लोकतान्त्रिक देश के जागरूक नागरिक की आवाज़ है। यह नागरिक की राजनीतिक और सामाजिक प्रतिबद्धता का काव्य संग्रह है।

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