आधा गाँव : राही मासूम रज़ा

हिन्दी साहित्य में विभाजन की त्रासदी को दिखाते हुए अनेक उपन्यास लिखे गए हैं। इसी कड़ी में राही मासूम रज़ा का उपन्यास ‘आधा गाँव’ भी शामिल है। यह एक उपन्यास नहीं वरन उस गाँव की जीवन गाथा है जिसने विभाजन का संत्रास झेला। इस उपन्यास में गंगौली में रहने वाले मुख्यतः मुस्लिम समुदाय के लोगों की कहानी है। गंगौली गाँव दो भागों में बटा हुआ है उत्तर-टोला और दक्खिन-टोला। इन दो टोलों में रहने वाले शीआ और सुन्नी मुस्लिम समुदाय के लोग रहते हैं इनके अलावा कुछ अन्य जातियाँ भी गाँव में हैं जो हिन्दू हैं। यह उपन्यास जिस तरह मुस्लिम समुदाय के रहन सहन को दिखाता है वह अन्यत्र कम दिखाई देता है। यह उपन्यास सांप्रदायिक दंगों के कारण गाँव में आए परिवर्तन की कहानी है। परंतु यह उपन्यास सांप्रदायिक घटनाओं से अधिक उसकी मानसिकता को प्रदर्शित करता है। सांप्रदायिक घटनाओं की वजह से किस तरह हमारा ग्रामीण और नगरीय समाज जिसमें तमाम विभिन्नताएं मौजूद थी एक रहते हुए भी विभाजित होने लगा था।

 उपन्यास के कथा का आरंभ गंगौली गाँव में मुहर्रम के साथ होता है। मुहर्रम के दौरान इमामबाड़े में गाए जाने वाले मरसिए की घटना इस उपन्यास में आदि से लेकर अंत तक व्याप्त है। मरसिया जब गाया जाता है तो अक्सर लोग रोने लगते हैं। देखने वाली बात है कि समय के साथ लोगों का रोना कम हो गया था। लोग जबरदस्ती रोने की कोशिश करते हैं जिसका ज़िक्र उपन्यास के आरंभिक अंश में मिल जाता है। परंतु कथा के आखिर में जब मरसिया गाया जाता है तो लोग पहले ही मिसरे से रोने लगते हैं। यह विभाजन के दर्द का विलाप है। इंसान दूसरे के दुःख में शरीक हो सकता है, उससे सहानुभूति रख सकता है परंतु उसका निजी दुःख उसके ऊपर हमेशा हावी रहता है। यह इस उपन्यास में काफी खूबसूरती से दिखाया गया है। उपन्यास की कथा में आपको मोहर्रम का महीना, ताजियादारी, जुलूस, नौहें, शोजखानी, मजलिसें और चालीसवां मिलता है। ये जो आधा गाँव है वह शिया और सुन्नी मुसलमानों में साथ ही सैयदों, जुलाहों उत्तर पट्टी और दक्खिन पट्टी एवं हिन्दुओं और मुसलमानों, छूतों और अछूतों तथा जमींदारों एवं आसामियों में बंटा है। इसीलिए इसे राही मासूम रज़ा साहब ‘आधा गाँव’ की संज्ञा देते हैं। इन सबके बावजूद ये एक साझी संस्कृति के भाग हैं। एक साझी बोली भोजपुरी इनके बीच बोली जाति है।

उपन्यास के किरदारों की बात करें राही मासूम रज़ा साहब का ही एक कथन याद आता है जो इस उपन्यास की भूमिका में है – “ये पात्र ऐसे हैं कि इस वातावरण में अजनबी नहीं मालूम होंगे और शायद आप भी अनुभव करें कि फुन्नन मियाँ, अब्बू मियाँ, झंगटिया-बो, मौलवी बेदार, कोमिला, बबरमुवा, बलराम चमार, हकीम आली कबीर, गया अहीर और अनवारुल हसन राक़ी और दूसरे तमाम लोग भी  गंगौली के रहने वाले हैं, लेकिन मैंने इन काल्पनिक पात्रों में कुछ असल पात्रों को भी फेंट दिया है। ये असली पात्र मेरे घरवाले हैं। जिनसे मैंने यथार्थ की पृष्ठभूमि बनाई है और जिनके कारण इस कहानी के काल्पनिक पात्र भी मुझसे बेतकल्लुफ़ हो गए हैं।” ये कथन इस उपन्यास के संदर्भ में सही है। इसके पात्र हमारे आस पस देखने को मिल जाएंगे जो तमाम दुर्गुणों से भरे हुए हैं और समाज का एक अभिन्न हिस्सा हैं।

उपन्यास में मुख्य तौर पर सांप्रदायिकता का मुद्दा उठाया गया है। सांप्रदायिक घटनाओं की बजाय उन्होंने यह दर्शाया है की सांप्रदायिकता आखिर किस प्रकार से फैलती है। किस तरह यह लोगों को प्रभावित करती है और किस तरह ऐसी परिस्थतियों में गाँव के कुछ लोग एक दूसरे के साथ रहे तो किस तरह ऐसी घटनाओं के कारण गाँव बंटने लगे। अफवाहों और राजनीतिक कुचक्रों से प्रेरित सांप्रदायिकता गाँव के भोले लोगों को आसानी से प्रभावित कर सकती है पर क्या वह अपने ही पड़ोसी की हत्या कर देंगे? क्या वह जिन्हें कल चाची, दादी कहते थे उनका बलात्कार कर सकते हैं? एक दृश्य में अलीगढ़ विश्वविद्यालय से आए लड़के गाँव के मुस्लिम समुदाय के लोगों को समझाते हैं की जब कांग्रेस की सरकार बनेगी तो हिन्दू उन्हें मारेंगे और उनकी माँ और बहन का बलात्कार करेंगे यहाँ एक हिन्दू पात्र यह सुनकर राम-राम करने लगता। वह कहता है “आप लोग त लिक्खल-पढ़ल बुझातानी। तनी सोचीं कि हमनी के जियत कोउ मियाँ लोगन की बहन-मतारी की तरफ देख सकेला।” यह कथन हमारे भारतीय समाज की संस्कृति को दिखाता है वहीं वे दो पढ़े-लिखे छात्र राजनीति से प्रेरित सांप्रदायिकता को दिखाते हैं। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि सांप्रदायिकता का ज़हर समाज में किस तरह आता है।

सांप्रदायिक भावना के विरोध में एक भाव अपनी जन्मभूमि से लगाव का होता है जो किसी भी इंसान को अपना जन्मस्थान छोड़ने से रोकता है जिसके बारे में इस उपन्यास में बहुत सुंदर कथन है जो इस प्रकार है- “मैं मुसलमान हूँ । लेकिन मुझे इस गाँव से मुहब्बत है, क्योंकि मैं खुद यह गाँव हूँ। मैं नील के इस गोदाम, इस तालाब और इन कच्चे रास्तों से प्यार करता हूँ क्योंकि ये मेरे ही मुख्तलिफ़ रूप हैं । मैदाने-जंग में जब मौत बहुत करीब आ जाती थी तो मुझे अल्लाह ज़रूर याद आता था, लेकिन मक्कए-मुअज्ज़मा या कर्बलाए-मुअल्ला की जगह मुझे गंगौली याद आती थी। और मैं यह सोचकर झल्ला जाता था और रोने लगा करता था कि अब शायद मैं नील के गोदाम पर बैठ कर गन्ना नहीं खा सकूँगा। और शायद अब मुझे आठवीं की मजलिस का हलवा नहीं मिलेगा। अल्लाह तो हर जगह है। फिर गंगौली और मक्का, और नील के गोदाम और काबे और हमारे पोखरे और चाहे-ज़म्ज़म में क्या फर्क है?”

ये सभी भावनाएं सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ खड़ी होती हैं और हमारे समाज को टूटने से बचाती हैं।

अब इस उपन्यास की कुछ अन्य छोटी-छोटी बातों की तरफ ध्यान देते हैं। इस उपन्यास में हमें लोक संस्कृति दिखाई देती है। वहाँ की मान्यताएं और मुहावरे दिखाई देते हैं। जैसे एक जगह दिन में कहानी सुनने से मना किया जाता है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि दिन में कहानी सुनने से सुनने वाले के मामा रास्ता भूल जाते हैं। यह मान्यता आज भी उत्तर प्रदेश के गाँवों में है। औरतों के प्रति उपन्यास में वही रवैया अपनाया गया है जो अधिकतर पूरे समाज में उस वक्त व्याप्त था। एक जगह तो एक पात्र यहाँ तक कह देता है की औरतों को तो अल्लाह ने बेवकूफ कहा है। इस उपन्यास में बार-बार औरतों की पिटाई करते हुए उनके पतियों को दिखाया गया है। बस एक जगह पर एक लड़की की बात को सुनकर आपको लगेगा की यह उस वक्त की बात नहीं आज की एक स्त्री की बात है। बच्छन नाम की लड़की से जब उसकी माँ झंगटिया-बो पूछती हैं कि उसकी कोख में यह बच्चा किसका है। इसपे बच्छन हैरान होती हुई कि पेट उसका, किसी और का कैसे हो सकता है, कहती है “हमारा है, अऊर के का है!” एक अन्य बात इस उपन्यास में हमारे सामने आती है जहाँ यह बताया जाता है कि एक कश्मीरी ब्राह्मण भी कर्बला में इमाम हुसैन के साथ शहीद हुआ था। उस ब्राह्मण के खानदान वाले खुद को हुसैनी ब्राह्मण कहते हैं। यह ख्याल शीआ मुसलमानों में आम है।

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       इस उपन्यास की भाषा में देशज शब्दों का प्रयोग किया गया है जो की उपन्यास के वातावरण के अनुकूल है। इसी के साथ उपन्यास में कथा पात्रों पर केंद्रित होकर आगे बढ़ती है। इस शैली की वजह से इस उपन्यास में कोई नायक नहीं हैं। यह शैली पाठक को पात्रों के चरित्र को महसूस करने में मदद कड़ी है। इससे वह पात्रों से और भी अधिक जुड़ पाते हैं।

इस प्रकार यह उपन्यास हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ उपन्यासों में से एक है। इसे पढ़ते हुए हम हमारे यहाँ की गंगा-जमुनी तहज़ीब को तो महसूस करते ही हैं साथ ही जब विभाजन और सांप्रदायिक माहौल बनने लगता है तो हम बेचैन भी होते हैं। यह उपन्यास हमारे इतिहास की एक तस्वीर है।

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