चाँद की कुछ आदतें हैं।
एक तो वह पूर्णिमा के दिन बड़ा-सा निकल आता है
बड़ा नक़ली (असल शायद वही हो)।
दूसरी यह, नीम की सूखी टहनियों से लटककर।
टँगा रहता है (अजब चिमगादड़ी आदत!)
तथा यह तीसरी भी बहुत उम्दा है
कि मस्जिद की मिनारों और गुंबद की पिछाड़ी से
ज़रा मुड़िया उठाकर मुँह बिराता है हमें!
यह चाँद! इसकी आदतें कब ठीक होंगी?
यह रचना प्रतिनिधि कवितायें ( राजकमल प्रकाशन ) से ली गयी है।