उड़ान के लिए

ख़ुशी से कहीं ज़्यादा एक किरदार के दुख हमें उससे जोड़ते हैं और एक बार उससे जुड़े तो फिर वो किसी कहानी या फ़िल्म का महज़ एक किरदार नहीं लगता बल्कि हमारी अपनी हक़ीक़त लगता है। फिर उसके सपने भी हमारे ही सपनों जैसे हों तो यूँ भी लगता है कि पर्दे पर हम ही तो चल रहे हैं, बस किसी और की शक्ल-ओ-सूरत के साथ। उड़ान साल 2010 में आई थी। मेरे हिस्से तक आने में उसने और लंबा वक़्त लिया। जब फ़िल्म देखी तो लगा जैसे ये तो अपनी ही कहानी है, हू-ब-हू नहीं पर बहुत हद तक। फ़िल्म के एक सीन में रोहन का सीनियर दोस्त अप्पू कहता है कि “सब छोटा शहर का बाप एक जैसा होता है।” उस सीन में किसी दूसरे दोस्त को ये भी कहना चाहिए था कि “सब छोटा शहर का बच्चा भी एक जैसा होता है, सपने देखने वाला, उड़ने की आरज़ू रखने वाला।” रोहन भी ऐसा ही है। वो लेखक बनना चाहता है। कविताएँ लिखता है और एक नॉवेल भी लिखा है। नॉवेल पूरा है या अधूरा, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। ज़रूरी ये है कि रोहन ने लिखा है, वो लिख रहा है और आगे भी सिर्फ़ लिखना ही चाहता है। वो अपने पिता की ज़िद के बावजूद उनकी फैक्ट्री में जॉब नहीं करना चाहता और लिटरेचर पढ़ना चाहता है, इंजीनियरिंग नहीं। स्कूल से निकाले जाने के बाद रोहन 8 साल बाद अपने पिता (भैरव सिंह) को रेल्वे स्टेशन पर देखता है। उन्हें एक नज़र देखकर वो आँखें हटा लेता है। जैसे वहाँ वो किसी और के होने की उम्मीद कर रहा था लेकिन ऐसा हुआ नहीं। घर पहुँचकर रोहन को पता चलता है कि उसका 6 साल का एक सौतेला भाई भी है, अर्जुन। जिसके बारे में उसे कोई ख़बर नहीं थी। रोहन का बर्ताव अर्जुन के साथ अच्छा नहीं होता लेकिन जब अचानक से बेहोश हो जाने पर अर्जुन को अस्पताल में भर्ती करना पड़ता है और रोहन को उसका ध्यान रखने की ज़िम्मेदारी मिलती है, तब एक सच उसे दिखाई देता है कि वो और अर्जुन दुख की एक ही डोर से बंधे हैं। ये कहानी जितनी रोहन की थी, ये उतनी ही अर्जुन की भी है। 6 साल के अर्जुन ने अपने मन का हाल तो सही से नहीं बताया लेकिन एक सवाल पूछते हुए इतना ज़रूर कहा – “सर ने आपको डांटा?… हमको हमेशा डांटे हैं, नहीं तो मारते हैं।”फ़िल्म में कई जगह पर रोहन के पिता भैरव सिंह माफ़ी मांगते हैं। उस वक़्त वो एक हारे हुए पिता जैसे दिखाई देते हैं जिनके बच्चे उनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाए। वो चाहते थे कि रोहन बिशप स्कूल से पढ़कर इंग्लैंड जाए और इंजीनियरिंग पढ़े लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अपने छोटे भाई से बहस करते हुए भैरव सिंह कहते हैं- “थक गए हैं हम सबको ख़ुश करते-करते, पहले बाबूजी को फिर तुमको और अब इन दोनों को… नहीं होता हमसे।” पिकनिक के सीन में रोहन भी अपने चाचा से कहता है- “मुझे समझ नहीं आता, एक पल में राक्षस दूसरे पल में भेड़।”भैरव सिंह से पूछा जाए तो वो ख़ुद को सही कहेंगे। वो ऐसा दिखाते भी हैं कि वो रोहन और अर्जुन की भलाई चाहते हैं, लेकिन परेशानी यही है कि उनकी भलाई वो अपनी शर्तों पर चाहते हैं। जैसे कोई क्रूर तानाशाह अपनी शर्तों पर देश के लोगों की भलाई चाहता हो। लेकिन क्या सचमुच भला हो रहा है या सिर्फ़ भलाई की बात हो रही है। रोहन दौड़ रहा है, जैसे हम सब दौड़ रहे हैं अपने सपनों के लिए। लड़ रहे हैं दिल में जमे हुए डर से, वो डर जो पिता से, समाज से विरासत में मिलता है। काश! कि एक पिता जितना डर भरना जानते हैं अपने ही बच्चे में, अगर वो उतना प्रेम भरना जानते, अगर एक पिता में थोड़ी-सी माँ होती तो ये दुनिया और बेहतर हो सकती थी। बच्चों का जीवन और सुंदर हो सकता था। वे सपने जो टूट गए, जिन्हें भुला दिया गया या जो खो गए और जिन्हें कभी ढूँढा न गया। वे सपने पूरे भी हो सकते थे। फ़िल्म के एक सीन में रोहन एक कविता पढ़ता है। सीन खत्म हो जाता है लेकिन कविता रह जाती है, रोहन के साथ, हमारे साथ। “जो लहरों से आगे नज़र देख पाती तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ वो आवाज़ तुमको भी जो भेद जाती तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँज़िद का तुम्हारे जो पर्दा सरकता, खिड़कियों से आगे भी तुम देख पाते आँखों से आदतों की जो पलकें हटाते तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँमेरी तरह होता अगर ख़ुद पर ज़रा भरोसा तो कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते रंग मेरी आँखों का बांटते ज़रा सा तो कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते नशा आसमान का जो चूमता तुम्हें, हसरतें तुम्हारी नया जन्म पाती ख़ुद दूसरे जन्म में मेरी उड़ान छूने, कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते” आख़िर में रोहन फैसला लेता है कि वो घर छोड़ देगा और मुंबई चला जाएगा अपने दोस्तों के पास। वहाँ विक्रम के रेस्टोरेंट में काम करेगा और चाहे तो पहरेदारी करेगा लेकिन यहाँ नहीं रहेगा। रोहन अपने साथ अर्जुन को भी ले जाता है। कहानी यहाँ ख़त्म भी होती है और शुरू भी। इससे आगे क्या? इससे आगे तो… रोहन अभी मुंबई में है और अपना नॉवेल पूरा कर रहा है। रेस्टोरेंट अच्छा चल रहा है, सब दोस्त अभी तक साथ हैं। अर्जुन को भी एक ख़्वाब ने चुन लिया है… थिएटर। रोहन और अर्जुन ख़ुश हैं, उनके हिस्से में आसमान भी है और उड़ान भी।

उज्ज्वल भड़ाना

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