बाबा डूंगर मंदिर : झाबुआ

झाबुआ जाने पर मुझे समोई स्थित बाबा डूंगर के मंदिर के बारे में पता चला। मैं यह मंदिर ज़रूर देखना चाहता था। इसके पीछे सबसे ख़ास कारण यही था कि यह भील आदिवासियों द्वारा स्थापित किया गया मंदिर है। और मैंने कभी किसी आदिवासी मंदिर को नहीं देेखा था। समोई झाबुआ के मुख्य नगर से 28 किलोमीटर दूर एक गाँव है। जो झाबुआ जिले में ही आता है। जब मैं झाबुआ से निकला तो तुरंत बरसात शुरु हो गई, कार आगे बढ़ रही थी नज़ारा बदलता जा रहा था। चारों और छोटी-छोटी हरी-भरी पहाड़ियाँ और उनपर पड़ती बारिश की बूँदें, कितना सुंदर दृश्य था वह।

समोई जब आया तो बारिश रुक गई थी। वहाँ से हमें किसी ने जॉइन किया। जो मंदिर दिखाने और वहाँ के लोगों से मिलवाने मेरे साथ जाने वाले थे। अब हम बाबा डूंगर के मंदिर की ओर बढ़ते चले जा रहे थे। मंदिर वहाँ की सबसे ऊँची चोटी पर स्थित था। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते जाते, वैसे वैसे रास्ता संकरा होता गया‌। जब हम ऊपर चोटी पर पहुँचे तो मैंने देखा कि वहाँ वहाँ टीन के हज़ारों तंबूनुमा घर बने हुए हैं। वे दरअसल दुकानें और दर्शनार्थियों के लिए खाली छोड़े गए तंबू थे जिनमें वे आराम कर सकें या खाना बना सकें।

हमारी गाड़ी मंदिर के सामने पहुँच चुकी थी। मंदिर के प्रांगड़ में घुसने से पहले हमने एक ओर अपने जूते उतारकर रख दिए। मैं जैसे ही अंदर आया। अब बहुत ही ताकतवर शक्ति का अहसास मुझे हुआ। जैसे कुछ अपनी ओर खींच रहा हो। थोड़ी देर बाद मुझे अहसास हुआ कि शायद मैं अकेला होता तो यहाँ मेरे जैसे कमज़ोर ह्रदय व्यक्ति का कुछ देर ठहर पाना भी मुमकिन नहीं था। मुझे नहीं पता वह क्या था जो मैंने वहाँ महसूस किया।

मंदिर में चारों और बहुत सारे छोटे-छोटे घड़े और घोड़े भक्तों ने चढ़ाए हुए थे। वहाँ के ओझा ने बताया कि यहाँ यही चढ़ाया जाता है। इसलिए घड़े और घोड़ों का एक बहुत बड़ा अंबार मंदिर के दोनों और लगा हुआ था। बाबा डूंगर अपने घोड़े पर विराजमान थे, एक तरफ चंडी देवी की दो मूर्तियाँ थीं। चारों और गहरा लाल सिंदूर बिखरा हुआ था। हालांकि बाबा डूंगर और चंडी देवी की ये मूर्तियाँ बाद में स्थापित की गई थीं। इससे पहले वहाँ सिर्फ़ तीन पत्थरनुमा आकृतियाँ थीं जिनको अभी भी मुख्य मूर्ति के रूप में पूजा जाता है।

वहाँ प्रांगण में बहुत सारी शराब की बोतलें भी दिखाई दे रही थीं उनकी ओर इशारा कर ओझा ने बताना शुरू किया कि यह शराब और बकरा या मुर्गा बाबा को चढ़ाया जाता है। इसके बाद मास को परिवार व आसपास के जो भी लोग आते हैं वे सब किसी तंबू में बनाते हैं और वहीं खाते हैं। कई बार लोग केवल बकरे का कान काटकर उसे छोड़ देते हैं। ऐसे बकरों को जिन्हें छोड़ दिया जाता है, स्थानीय निवासी पहचानकर ले जाते हैं कि यह हमारा बकरा है। कुछ लोग वहाँ मिठाई को प्रसाद रूप चढ़ाते हैं।

ये सब जो कुछ भी बाबा को चढ़ाया जाता है वह वे लोग चढ़ाते हैं जिनकी कोई मन्नत पूरी हो जाती है। फिर जैसी जिसकी श्रद्धा वैसा बाबा का भोग।

मंदिर के मुख्य प्रांगण से निकलकर मैंने वह जगह देखने की इच्छा भी जताई जहाँ मुर्गे या बकरों को काटा जाता है। ओझा के साथ खड़े एक व्यक्ति ने पहले मुझे वहाँ जाने से मना किया। लेकिन मैंने फिर से कहा तो वह मुझे लेकर वहाँ चल पड़ा। मैं जूते पहनने लगा तो उसने मना किया। जब हम उस जगह पहुँचे तो पहले उसने बताया कि अगर आप सुबह आते तो आप यहाँ देख सकते थे लेकिन अभी शाम हो गई है और बारिश के कारण लगभग सब कुछ धुल गया है। मैं जहाँ खड़ा था मैंने मुर्गों के बहुत से पंख अपने पैरों के नीचे महसूस किये। यह सब मेरे लिए कौतुहल का विषय था लेकिन वहाँ सभी के लिए रोज़मर्रा का काम।

वापस चलते हुए मैंने एक बार फिर से गौर से मंदिर की ओर देखा और फिर हम गाड़ी में बैठ गए। और गाड़ी चल पड़ी, फिर से झाबुआ की ओर।

अंकुश कुमार
अंकुश कुमार
अंकुश कुमार हिन्दी साहित्य के प्रति आज के युग में सकारात्मक कार्य करने वाले युवाओं में से एक हैं , इन्होने अपने हिंदी प्रेम को केवल लेखन तक सिमित न करते हुए एक नए प्रयाश के रूप में हिन्दीनामा की शुरुआत की।
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