गोपाल सिंह नेपाली पर लेख

“दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी‌ अंखियाँ प्यासी रे..”

यह गीत उत्तर भारत में लगभग एक भजन की तरह गाया जाता रहा है। परंतु जितना मशहूर यह गीत रहा उतना ही कम इस गीत के रचनाकार। कई लोगों का मानना था कि यह गीत कृष्ण भक्त ‘सूरदास’ की रचना है, कुछ वर्ष पहले आई फिल्म ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ जैसी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पा चुकी फ़िल्म भी यही मानती है, इससे बुरा एक रचनाकार के लिए क्या हो सकता है। अब आप सोच रहे होंगे कि कौन-से रचनाकार हैं..? तो मैं आपको बता दूँ इनका नाम ‘गोपाल सिंह नेपाली’ है, ‘नेपाली’ उपनाम से भ्रमित ना हों ये उतने ही भारतीय थे जितने कि आप या मैं या यूँ कह सकते हैं कि हम सभी से ज़्यादा भारतीयता और देश भक्ति इनमें थी। भारतीय स्वतंत्रता से जुड़ी जितनी कविता इनके यहाँ मिलती हैं शायद ही कहीं और मिलें, वह चाहे ‘मेरा देश बड़ा गर्वीला’, ‘युगांतर’, ‘ नवीन कल्पना करो’, ‘स्वतंत्रता का दीपक’ हो या ‘भाई बहन’। ‘भाई बहन’ नामक कविता में तो इन्होंने भाई बहन के रिश्तों को भी क्रांति का प्रतीक बना दिया है –
“तू चिंगारी बन कर उड़ री
जाग-जाग मैं ज्वाल बनूँ
तू बन जा हहराती गंगा
मैं झेलम बेहाल बनूँ”

नेपाली जी उत्तर-छायावाद के यशस्वी कवियों में से एक थे, जिनके काव्य का मुख्य प्रतिपाद्य राष्ट्रीयता, प्रकृति और प्रेम रहा।
गोपाल सिंह नेपाली प्रकृति रागी थे। प्रकृति उनके काव्य का उत्स है।

      "बगिया हरी-हरी, वसुधरा भरी-भरी, फिर क्यों रहे मनुष्य की दशा मरी-मरी"

नेपाली जी के हर काव्य के केंद्र में मनुष्य की चिन्ता निहित होती थी। वह चाहे राष्ट्रीयता से जुड़ी हो या प्रकृति से।

गोपाल सिंह नेपाली की ख्याति यहीं तक नहीं रुकती वह विविध गुणों वाले व्यक्तित्व थे। उनके काव्य संग्रह में उमंग (बासठ कविताओं का पहला संग्रह), ‘पंछी’, ‘रागिनी’, ‘पंचमी’, ‘नवीन’ और ‘हिमालय ने पुकारा है’ आदि शामिल हैं, वहीं दूसरी ओर उन्होंने सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के साथ ‘सूध’ नामक मासिक पत्रिका में सम्पादक का काम किया तथा कालांतर में रतलाम टाइम्स, पुण्य भूमि तथा योगी के सम्पादक का काम भी निष्ठा पूर्वक निभाया।

नेपाली जी का प्रवास मुंबई भी रहा जहाँ उन्होंने तकरीबन चार दर्जन फ़िल्मों के गीत लिखे, दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी उसी दौरान लिखी गई रचना है जो नरसी भगत नामक फ़िल्म के लिए लिखी गई थी। गोपाल सिंह नेपाली ने ‘हिमालय फिल्म्स’ और ‘नेपाली पिक्चर्स’ नाम से फिल्म निर्माण कंपनी की भी स्थापना की थी, एक निर्माता निर्देशक के तौर पर उनके तीन फ़िल्म ‘नजराना’, ‘सनसनी’, और ‘ख़ुशबू’ थे।

लेकिन ऐसी क्या वज़ह थी जिनके कारण यह इतने उपेक्षित थे वज़ह सहज ही पता चल जाती है जब गहराई से हम इनकी रचनाओं को देखते हैं। इनके काव्य में ग़रीब-गुरबों की उपेक्षित आवाज़ है, इस उपेक्षित आवाज़ को उठाने में वह शायद ख़ुद भी उसी का हिस्सा बन कर रह गए, उन्होंने कभी अपने लेखनी से समझौता नहीं किया उन्होंने ख़ुद व्यंगात्मक अंदाज़ में यह बात कही कि

“तुझ सा लहरों में बह लेता तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो मैं भी महलों में रह लेता”

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आप सहज इस उपेक्षिता के कारण समझ सकते हैं कि उन्होंने अपनी कलम कभी किसी के पास गिरवी नहीं रखी और हमेशा आम आदमी के हित की बात करते रहे।
परंतु इन सबके बावजूद हिन्दी साहित्य और सिनेमा जगत में भी उन्हें वह स्थान नहीं मिला जो उन्हें मिलना चाहिए था। मौजूदा दौर में ना उनकी रचनाएँ अकादमिक गतिविधियों में दिखती हैं ना इनके ऊपर ही कोई संगोष्ठी या कोई बात-चीत ही होती…।‌ वह चाहे बड़े आलोचक हो या पाठक दोनों ने ही उनकी रचनाओं को लगभग भुला दिया..।

उत्तर छायावाद के श्रेष्ठ कवियों में से एक होने पर भी इनकी रचनाओं को नजरअंदाज किया गया। उनकी रचनाएँ मानों लुप्त होने को हैं। गोपाल सिंह नेपाली और उनकी रचनाओं को अब लगभग भुला दिया गया है। उपेक्षित कवि जीवन के साथ-साथ उन्हें मृत्यु भी वैसी ही प्राप्त हुई।

17 अप्रैल 1963 को गोपाल सिंह नेपाली जी ने गुमनामी में ही अपना दम तोड़ दिया, बिहार के भागलपुर स्टेशन पर दो दिन तक उनकी लाश को पहचानने वाला भी कोई नहीं था। आज वक्त है जब हम उनकी रचनाओं को पढ़ कर उन्हें जाने समझें और उन्हें सही सम्मान दें..।

प्रस्तुति‌ :- अमित राज (दिल्ली विश्वविद्यालय)

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