शिव कुमार बटालवी

चेहरा यूँ कि कोई देखते ही फ़िदा हो जाए, किसी बच्चे सा मासूम। आवाज़ में चाशनी घुली थी। मुस्करा दे तो लगता कि फूलों पर ओस टपक रही है। जब प्रेम में डूबा तो बिरह के मोती लेकर बाहर निकला। आज उसके चुने मोती से माला बनाकर लोग उसे पहन रहे हैं।

मुहब्बत अगर लोगों को शायर बना देती है तो बिरह लोगों को शिव बना देती है। प्रेम में बिछड़ने वालों तुम नग़्मे क्यूँ नहीं सुनते, तुम शिव के नग़्मे क्यूँ नहीं सुनते। उनके गीतों को सुनकर लगता है कि दूर किसी पहाड़ पर कोई फ़कीर टहलता हुआ इबादत कर रहा है। ऐसी इबादत कि फ़कीर तो धुन में है और लोगों की आँखों से आँसू नहीं रुकते।

यूँ तो प्रार्थना की भाषा नहीं होती संवेदनाएँ होती हैं मगर उधर दुनिया ने शिव को पंजाबी कवि की परिभाषा में बांध दिया। इधर शिव ने अपने जाने के 46 साल बाद भी अपनी महबूबा के लिए लिखा इश्तहार सबको सुनवा दिया।

इक कुड़ी जिहदा नाम मोहब्बत, इसे शिव ने मेले में अचानक गुम हो गयी अपनी महबूबा के लिए लिखा था बतौर इश्तहार। इश्तहार जो छपा भी, बिका भी और ख़ूब बंटा भी। शिव को अपनी महबूबा तब भी नहीं मिली। एक बीमारी का शिकार हो गयी और जब ज़िंदगी ने दूसरा मौका दिया तो वह भी विदेश चली गयी।

माए नी माए मैं एक शिकरा यार बनाया
चूरी कुट्टां तां ओह खाओं दा नाहीं
वे असां दिल दा मांस खवाया
इक उड़ारी ऐसी मारी
कि मुड़ वतनी ना आया

शिव के गीत सुनकर अमृता प्रीतम ने कहा था, बस कर वीरे और नहीं सुना जांदा।

नदी में मारे गए किसी पत्थर से उस कोमल नीर को जो चोट पहुँचती है वैसा दर्द शिव की कविताओं में है। उनके गीतों को यूं कई आवाज़ें मिलीं लेकिन ग़ज़ल-गायकों की बात तो पीछे है अव्वल शिव के ख़ुद के गाए गीत मौजूद हैं यूट्यूब पर। जैसे लिखते वक़्त उनके आँसू गिरे होंगे वैसे ही गाते वक़्त दर्द बहाया है।

शिव के गीतों ने पंजाब की शादियों से लेकर फ़िल्मों की धुनों तक अपने आलाप तय किए। लेकिन इतने सालों में भी उनका सम्पूर्ण काम हिंदी में नहीं आया। लिप्यांतर हुआ लेकिन भाषा का अनुवाद बाकी है। लेकिन शिव तो उस सूफ़ी जैसे हैं जिसे मैं और तुम का भेद नहीं मालूम। वह ख़ुद तो प्रेम के रंग में रंगे ही उसके इंद्रधनुष से दुनिया को भी रंगीन कर दिया।

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शिव कहाँ पैदा हुए, कहाँ पढ़ाई की जैसी बातें मुझे बेहद ग़ैर-ज़रूरी मालूम होती हैं। कवि की पहचान उसकी कविता है, उसके पीछे की प्रेरणा है। शिव को जानने के लिए ये जानना काफ़ी है कि उन्होंने हिज्र की परिक्रमा की है, दर्द को काबा कहा और अपनी पीड़ा को अपना ईश्वर माना है। सहेजने के लिए बीबीसी का एक इंटरव्यू है जिसमें कोने पर चलती घड़ी अगर उस दिन वहीं रूक जाती तो शिव आज 83 साल के हो जाते।

हम सब जल्दबाज़ी में हैं लेकिन मरने की जल्दी सिर्फ़ शिव को ही थी उस पर भी जवानी में ही मरने की ज़िद।

जोबन रूत्ते जो भी मरदा फूल बने या तारा
जोबन रूत्ते आशिक मरदे या कोई करमां वाला
असां तां जोबन रुत्ते मरनां

न जाने कौन से तारे में या कौन से फूल में शिव ने ख़ुद को रखा होगा।

वो लैम्पपोस्ट जिसके नीचे शिव रोते हुए अपने गाने गाते, वो दीवार जिस पर कोयले से ग़ज़ल लिख दी थी उन्होंने, वो तस्वीर जिसे उन्होंने अमृता को दिखाया था, घर की वह छत जिस पर हर दोपहर वे अख़बार पढ़ते थे। 37 साल की उम्र कितनी कम थी। कितने पेड़ और थे जो उनका दर्द बांट सकते थे, कितने कागज़ नम होने बाकी थे, थोड़ी और गीली हो सकती थी बारिश।

मैं न जाने कितनी बार वो इंटरव्यू देख चुकी हूँ और सोचती हूँ कि बिरह के सुल्तान ने कितनी जल्दी अपना बिरह साहित्य को दे दिया। थोड़ा और लिख जाते शिव, कुछ और इंटरव्यू होते तो देखती दुनिया कि कितने मासूम होते हैं प्रेम में बिछड़े लोग।

प्रस्तुति :- दीपाली अग्रवाल

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दीपाली अग्रवाल
दीपाली अग्रवाल
दीपाली एमिटी यूनिवर्सिटी से मास कम्युनिकेशन की डिग्री हासिल करने के पश्चात फिलहाल अमर उजाला में कॉपी एडिटर के पद पर कार्यरत हैं और अमर उजाला काव्य संभालती हैं। साहित्य में शुरुआत से ही काफी रुचि होने के कारण इन्हें कवितायें पढ़ने का बहुत शौक है, शिव कुमार बटालवी और फैज़ अहमद फैज़ इनके पसंदीदा रचनाकार हैं। इसके अलावा इन्हें अलग-अलग भाषाओं से बहुत प्रेम है, फिलहाल पंजाबी, उर्दू, गुजराती, बंगाली व फ्रेंच आदि पढ़ लेती हैं और पर्शियन सीख रही हैं।