कैपरनौम : फिल्म समीक्षा

कितना मलाल है हमें जीवन में। ये नहीं हुआ, वो नहीं मिल पाया, काश ऐसा हो जाता। लेकिन उसे तो अपने जन्म का ही मलाल है। उसका जीवन इतना दुष्कर है कि वो जन्म देने वाले पर गुस्सा है। और ज़िद भी है कि ऐसा जीवन जीने के लिए कोई और इंसान पैदा ना हो।

‘कैपरनौम’ फिल्म हमें वो दिखाती है, जो हमारे आस-पास ही है और जिसे नहीं देखने का चयन हमने सहज ही कर लिया है। वो लोग जिन्हें हम ‘शरणार्थी’ कहते हैं और जिनके पास कोई काग़ज़ नहीं है, यह प्रमाणित करने के लिए कि वो इस ज़मीन पर खड़े होने, बैठने और सोने का हक़ रखते हैं।

हमारी कहानियों का नायक भले ही कितनी भी परेशानियों में हो, अंत में वह सभी मुश्किलों से लड़ता हुआ सफल हो ही जाता है। ‘कैपरनौम’ का नायक सफल नहीं होता। वह सफल होना भी नहीं चाहता। वह तो बस 12 साल का है। अगले दिन ज़िंदा रह पाना ही उसके लिए सफ़लता है। उसे उम्मीद है एक ऐसे देश की जहाँ उसके पास रहने के लिए एक अदद कमरा हो, जिसमें उससे पूछे बग़ैर कोई आ ना सकता हो। ऐसी जगह पहुँचने के लिए वो स्केटबोर्ड, कुछ बर्तन और एक बच्चे को लेकर निकल जाता है। बच्चे की माँ जेल में है। उसके पास काग़ज़ नहीं है। नायक के पास भी काग़ज़ नहीं है, बताने के लिए कि वह 12 साल का है, कि वह भूखा है, कि वह है।

वह नशे बेचता है, और आख़िरकार, बच्चे को भी, ना चाहते हुए भी। इस उम्मीद में कि बच्चे को शायद कोई ऐसा परिवार मिल जाए जहाँ उसका जीवन आसान हो।

वह अपनी बहन की मौत से गुस्से में है और एक आदमी पर हमला कर देता है। वह जेल में है। उसे सज़ा होती है या नहीं, पता नहीं। लेकिन उसका पहचान पत्र बनवाया जा रहा है। पहचान पत्र के लिए फ़ोटो वह ऐसे खिंचवाता है जैसे अपनी ही बरसी पर आया हो।

‘कैपरनौम’ की दुनिया के 126 मिनट हमें बार-बार विचलित करते हैं, क्योंकि यह दुनिया हमारे सभ्य होने और सफ़ल होने के ग़ुमान पर चोट करती है।

‘कैपरनौम’ सिर्फ़ अपनी कहानी की वजह से हमें प्रभावित नहीं करती, इस प्रक्रिया में फिल्म के क्राफ्ट की भी बड़ी भूमिका है। यह ईरानी सिनेमा के यथार्थवाद से प्रभावित है। फिल्म के अधिकतर शॉट्स हैंडहेल्ड कैमरे से लिए गए हैं। किरदारों का अभिनय, फिल्म की सेटिंग और बैकग्राउंड इतने सहज हैं कि ड्रामा होते हुए भी यह फिल्म डॉक्यूमेंट्री जैसी लगती है।

इस फिल्म को देखते हुए कई बार मीरा नायर की 1988 में आई फिल्म ‘सलाम बॉम्बे’ की याद आती है। दोनों ही फिल्मों के मुख्य अभिनेताओं का निजी जीवन और फिल्म के किरदार का जीवन लगभग एक जैसा है। ‘सलाम बॉम्बे’ का ‘कृष्णा’ और ‘कैपरनौम’ का ‘ज़ाएन’। दोनों ही हाशिये के समाज में रहते हैं और जीवन की कठोरता हर समय उनपर हावी है। नशा, यौन हिंसा, हत्या और जेल दोनों ही किरदारों की यात्रा का मुख्य हिस्सा हैं। हालांकि ‘कैपरनौम’ का नायक अपनी ज़िद की बदौलत ही नाटकीय ढंग से अपना जीवन बदल लेता है, जबकि ‘सलाम बॉम्बे’ का ‘कृष्णा’ अपने संघर्षों के मध्य में ही घिरा रह जाता है।

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दोनों फिल्मों में अंतर यह है कि ‘कैपरनौम’ अपने कथ्य में ‘सलाम बॉम्बे’ से ज़्यादा प्रत्यक्ष है, जबकि ‘सलाम बॉम्बे’ के कथ्य में कला का हस्तक्षेप ज़्यादा है।

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कृति बरनवाल
कृति बरनवाल
कृति बरनवाल बिहार के पश्चिमी चंपारण से ताल्लुक रखती हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक कृति ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन से P G Diploma भी किया है। पढ़ने के साथ-साथ कृति का रुझान लेखन में भी रहा है।