जोरम : फिल्म समीक्षा

पर्दे पर बहुत कम कहानियां होती है, जो आपके ज़हन में अपने किरदार छोड़कर आपको उन किरदारों से बतियाने और समाज में जायज़ और नाजायज़ वर्दी के बारे में सोचने पर मजबूर कर देती है, “जोरम” एक ऐसी ही संघर्ष भरी कहानी है, फ़िल्म बहुत अच्छी है पर थियेटर के लिए नहीं है और मुझे लगता है कि “जोरम” के डायरेक्टर देवाशीष मखीजा नहीं चाहते की आप इसे एंटरटेनमेंट के उपकरण से देखे।

कहानी शुरू होती है वानो और दशरू से, जो की झारखंड में दो आदिवासी हैं, एक सुनहरी दोपहर है और दशरू मिट्टी में बैठा है और साथ में जीवन संगिनी है, और दोनों झूला झूल रहें है, संग में प्रेम में है और दोनों एक फोक गीत गा रहे हैं “लादो मोहे, लादो मोहे प्लास फूल”।

अगले ही क्षण वो फ्रेम खाली है, कोई था जो अब नहीं है, जैसे की उनके जीवन की सारी खुशियों को किसी ब्लेक होल ने अपने भीतर निगल लिया हो।

इसके बाद कहानी सीधे शहर की सीमेंट और कंक्रीट की दीवारों के बीच पहुंचती है, जहां दोनों पति-पत्नी इमारतों के बीच मजदूरी करते हैं और वानो की सेफ्टी जैकट के नीचे एक तीन महीने की बच्ची भी है, नाम है “जोरम”, लेकिन ये लोग यहां कैसे पहुंचे? ये सवाल दर्शको के मन में उठता है।

फिर कहानी थ्रिलर में तब्दील होती है,‌ जब एक शाम को दशरू बिल्डिंग में अपने टिन शेड में पहुंचता है और वह अपनी बीवी की लाश को‌ उल्टा  लटका पाता है खून से सनी हुई, तभी उस पर कोई हमला करता है और एक व्यक्ति उसको मारता है दूसरा वीडियो बनाता है, दशरू जैसे-तैसे खुद को इनसे बचाता है और वहां से उनको मारकर भगाने में कामयाब होता है, सब कुछ बहुत ही अजीब लगता है और परिस्थितियां अब पहले कई बद्तर होती हैं, कोई है जो‌ दशरू के अतीत से है, और उसे मारना चाहता है, वो अपनी पत्नी को खो चुका है, और अब उसे अपनी तीन महीने की बच्ची जोरम को भी बचाना है, 

कहानी में संघर्ष है, शासन-प्रशासन है, पूंजीवाद है, शहर का पथरीला व्यहार है, और अतीत में आदिवासियों की जल, जंगल और जमीन से जुड़ी कहानियां हैं, और उसके पीछे दौड़ती पुलिस है।

मनोज बाजपेयी ने फ़िल्म में बखूबी से दशरू का किरदार निभाया है और साथ में स्मिता तांबे, जिशान आयूब और राज श्री देशपांडे जैसे कलाकारों ने अपने किरदारों से दर्शकों को अंत तक फिल्म से बांधे रखा है, साथ ही डायरेक्टर देवाशीष मखीजा ने इस आदिवासी कहानी के हर पहलू को बेहतरीन ढंग से पर्दे पर दिखाया है।

फिल्म में कोई मिलावट नहीं है और एक गंभीर, समाजिक और मार्मिक कटाक्ष है, बस इसे एक संवेदना के साथ देखे और ये आपको भीतर तक  झकझोंर देगी।

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~ Himankk ( मयंक असवाल )
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