डाकिया
डाकिया
हांफता है
धूल झाड़ता है
चाय के लिए मना करता है
डाकिया
अपनी चप्पल
फिर अंगूठे में संभालकर
फँसाता है
और, मनीआर्डर के रुपये
गिनता है।
वसंत
रेल गाड़ी आती है
और बिना रुके
चली जाती है।
जंगल में
पलाश का एक गार्ड
लाल झंडियाँ
दिखाता रह जाता है।
मरना
आदमी
मरने के बाद
कुछ नहीं सोचता।
आदमी
मरने के बाद
कुछ नहीं बोलता।
कुछ नहीं सोचने
और कुछ नहीं बोलने पर
आदमी
मर जाता है।
दिन
एक सुस्त बैल
हाँफ रहा है।
उसके पुट्ठों पर
चमक रहा है पसीना
थके हुए नथुनों से
गिर रहा है
सफ़ेद झाग
सफ़ेद झाग
धीरे-धीरे
सारे मैदान में
जमा हो गया है।
शरारत
छत पर बच्चा
अपनी माँ के साथ आता है।
पहाड़ों की ओर वह
अपनी नन्हीं उंगली दिखाता है।
पहाड़ आँख बचा कर
हल्के-से पीछे हट जाते हैं
माँ देख नहीं पाती।
बच्चा
देख लेता है।
वह ताली पीटकर उछलता है
–देखा माँ, देखा
उधर अभी
सुबह हो जाएगी।
दिल्ली
समुद्र के किनारे
अकेले नारियल के पेड़ की तरह है
एक अकेला आदमी इस शहर में।
समुद्र के ऊपर उड़ती
एक अकेली चिड़िया का कंठ है
एक अकेले आदमी की आवाज़
कितनी बड़ी-बड़ी इमारतें हैं दिल्ली में
असंख्य जगमग जहाज
डगमगाते हैं चारों ओर रात भर
कहाँ जा रहे होंगे इनमें बैठे तिज़ारती
कितने जवाहरात लदे होंगे इन जहाजों में
कितने ग़ुलाम
अपनी पिघलती चरबी की ऊष्मा में
पतवारों पर थक कर सो गए होगे।
ओनासिस! ओनासिस!
यहाँ तुम्हारी नगरी में
फिर से है एक अकेला आदमी।